रविवार, 31 अक्टूबर 2010

थोड़ा ठहरने दे

चलेंगे फिर साथी!
थोड़ा ठहरने दे,
मुड़ कर पीछे देख तो लूँ।

बाढ़ वर्षों से रुकी थी
तुम मिले
और बाँध दरका
फिर टूट गया,
बह गया बहुत कुछ।

कीच भरी जमीन पर खड़े हो
टूटन को देखना चाहता हूँ
वह जो बहे जा रहा है
क्या है उसकी पहचान?
क्या परिणति?
क्यों?
कैसे?
कहाँ?
क्या है सार्थकता उसकी?
क्या खोया क्या पाया?
क्या शेष है/रहा? 

थोड़ा ठहरने दे,  
मुड़ कर पीछे देख तो लूँ। 

गुरुवार, 28 अक्टूबर 2010

साथी हाथ थाम

साथी हाथ थाम। 

भोर के द्वार पर प्राची में दीप है
पसर गया लहलह माँग का सिन्दूर है। 
बटुर गया समय,
देह के वितान पर सफेदी भरपूर है।
कल मेंहदी रचाई थी! 
साथी हाथ थाम।

धूप भीगी और सूख गई, ढलना है।
हो चुका विस्तार बहुत, सिकुड़ना है।  
क्या हुआ जो मुक्ति की राह में, 
नाच रहे प्रेत हैं, चलना है। 
साथ होना काफी नहीं 
साथी हाथ थाम।

ये जो दरक रही है, छत नहीं, हम ही हैं ।
ये जो मौन है, सम्वाद नहीं, हम ही हैं। 
ये जो रोटी है, स्वाद नहीं, हम ही हैं। 
मेरे भी काँप रहे हैं, तुम्हारे भी काँप रहे हैं।
साथी हाथ थाम।  

पूर्णिमा है, ठंड है, एकांत है। 
मन के ज्वार फिर भी शांत हैं 
बहुत दिन हो गए दाह से सीझे हुए ।
कपोल पर कपोल तो ठीक है
पर साथ स्वेदहीन है 
साथी हाथ थाम। 

रविवार, 24 अक्टूबर 2010

एक बार जाल और ... मिलने जुलने का सलीका

अपनी बहुत सुना लिए, आज दो दूसरों की (मुझे बहुत बहुत पसन्द हैं):

बुद्धिनाथ मिश्र 
श्री ललित कुमार के सौजन्य से यह गीत पूरा मिल गया:




गीत 

एक बार और जाल फेंक रे मछेरे!
जाने किस मछली में बंधन की चाह हो। 

सपनों की ओस गूँथती कुश की नोक है,
हर दर्पण में उभरा एक दिवा लोक है,
रेत के घरौंदों में सीप के बसेरे,
इस अँधेर में कैसे नेह का निबाह हो?
एक बार और जाल फेंक रे मछेरे!

उनका मन आज हो गया पुरइन पात है,
भिगो नहीं पाती यह पूरी बरसात है, 
चंदा के इर्द-गिर्द मेघों के घेरे, 
ऐसे में क्यूँ न कोई मौसमी गुनाह हो?
एक बार और जाल फेंक रे मछेरे!

गूँजती गुफाओं में पिछली सौगंध है,
हर चारे में कोई चुंबकीय गंध है,
कैसे दे हंस झील के अनंत फेरे? 
पग-पग पर लहरें जब माँग रहीं छाँह हो!
एक बार और जाल फेंक रे मछेरे!

कुमकुम सी निखरी कुछ भोरहरी लाज है,
बंसी की डोर बहुत काँप रही आज है,
यूँ ही ना तोड़ अभी बीन रे सँपेरे,
जाने किस नागिन में प्रीत का उछाह हो!
एक बार और जाल फेंक रे मछेरे!
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अज्ञात(आप को कवि का नाम ज्ञात हो तो बताइए)
देवता है कोई हममें न फरिश्ता कोई,
छू के मत देखना हर रंग उतर जाता है। 
मिलने जुलने का सलीका है जरूरी वर्ना
चन्द मुलाकातों में आदमी मर जाता है। 

शनिवार, 23 अक्टूबर 2010

पसीना

(1) 
पसीना 
टेबल पर टपकता है। 
खेत में टपकता है। 
फर्श पर टपकता है। 
दिन भर काम करते थक जाता है -
बिस्तर में रिसता है।

(2) 
पसीना 
निकलता निर्गन्ध है ।
हवा, इत्र, फुलेल, साबुन
बिगाड़ देते हैं आदत। 
कुछ भी कर लो 
गन्धाता रहता है। 


(3) 
जब डूब जाता है पैसा मार्केट में। 
जब परीक्षा के सवाल
किताबी याददाश्त गुम कर देते हैं।
जब फुलाई सरसो 
रातो रात लाही से मार जाती है। ...
बिना परवाह किए कि 
बाहर जाड़ा है, गर्मी है कि बरसात 
पसीना निकलता है, 
हवा से जुगलबन्दी करता है 
और धीरे से दे जाता है
फिर से उठने लायक साँस।


(4) 
बाहर की दिन भर की चखचख
रोज गन्दे होते घर की सफाई
धीरे धीरे घिसते रहते हैं रिश्ते को।
इससे पहले कि रिश्ता दरके  
पसीना रातों को प्रीत के लेप लगाता है 
और सुबह तैयार हो जाती है - 
एक दिन भर चखचख 
एक दिन भर गन्दगी 
झेलने को। 
  

गुरुवार, 21 अक्टूबर 2010

दुनिया उसी से कायम है

"तुम्हें पढ़ना चाहता हूँ"
"मैं अन्धी हो चुकी हूँ"
"तुम्हें लिखना चाहता हूँ"
"मेरे हाथ अब काँपते हैं"
"तुम्हें छूना चाहता हूँ"
"मेरे अंग गलित हैं"
"इस बार मेरे की जगह तुम्हारे कहना था"
"एक ही बात है। 
 पढ़ना, लिखना, छूना सब बेमानी हैं
अपने भीतर झाँक लो, सब हो जाएगा"
"तुम नहीं सुधरोगी"
"तुम भी तो नहीं सुधर पाए" 
"हाँ, कुछ है जो कभी नहीं बदलता "
"दुनिया उसी से कायम है"    

बुधवार, 20 अक्टूबर 2010

सब तुम में ... होना, न होना...क्यों है?

कितने प्रारम्भ
कितने ही अंत 
ऊषा प्रतिदिन 
गोधूलि प्रतिदिन 
सब तुमसे 
सब तुम पर।

सब तुम में 
इतना कैसे सिमटा तुम में?
तुम हो ही क्यों?

अभी एक गीत सुना है:
तेरा ना होना जाने क्यों होना ही है। 
क्यों है? 
  
    

शनिवार, 16 अक्टूबर 2010

चित्रा का नेह, बिखरे पूजा पुष्प

village_sky 

गाँव का आसमान
वत्सल वत्सल
परदेसी लाल आया है! 
 chitra

'चित्रा' हरसाई
धा धा आई
श्वेत श्याम आँचल में
बाँध के रखा था
खुल गए बन्ध।
बरस रही नेह धार
धरती तर तरल तरल।

harsingar

हरसिंगार! तुमने बिखरा दिए
तज दिए साज शृंगार।
ये जो भूमि पर बिखरे हैं
जो रह गए अटके ही
मेरी पूजा के ही पुष्प हैं !
जिन्हें बीनते हैं लोग
देवी की आराधना हेतु।
जिन्हें यूँ ही बिखेर दिया -
पूरे परिवेश में
उन्हें
मैं किस हेतु सहेजूँ?
किसके लिए??

बुधवार, 13 अक्टूबर 2010

लिपटना

कँटीले शमी से लिपटी है कोमल बेल
लटक़ रही हैं फलियाँ।

हमारा लिपटना याद आया है
क्या होता जो हम न लिपटते?
काँटे तब भी होते
फलियाँ तब भी होतीं ।

लेकिन वो बात कहाँ होती?
याद कहाँ होती?
जो बस खिंच आई है ऐसे ही
यह मुस्कान कहाँ होती?

शनिवार, 9 अक्टूबर 2010

... मैंने तुम्हें पढ़ना छोड़ दिया है

... मैंने तुम्हें पढ़ना छोड़ दिया है,
नहीं देख सकता तुम्हें यूँ चुकते हुए।
तुम्हारे वे शब्द जिनमें जीवन टहलता था,
प्रसिद्धि के गलियारों में भटक गए हैं।
मेरे घुटने अब दर्द करते हैं,
तुम्हारे साथ नहीं चल सकता।

ऐसे ही एक दिन पत्रों की पिटारी खोली
उनमें शब्द अभी भी छलकते हैं
मैंने उन पर हाथ जो फेरा,
अंगुलियाँ नीली हो गईं
जाने क्यों उन आँखों में सीलन सी लगी
जिनमें 'टियर ड्रॉप' डालने को डॉक्टर ने बताया है।

स्क्रीन पर तुम्हारी लिखाई नहीं देख पाता
चकाचौंध से आँखों में किचमिची सी होती है
तब जब कि मेरे मन ने कहा है -
"तुम उससे जलते हो।"
मेरे हाथ में तुम्हारे वही छ्लकते पत्र हैं
इन्हें आज तक क्यों नहीं जला पाया?

गुरुवार, 7 अक्टूबर 2010

तुम्हारी लम्बी बीमारी

(1) 
तुम्हारी लम्बी बीमारी 
अरगनी पर टँगे सूखते सूखे कपड़ों सी।
नहीं हटा पाया उन्हें, भीगने भिगोने का डर है।

(2) 
कपड़ों में भीनी ओस
रोज उड़ जाती है गुनगुनी धूप में ही।
कोई ठौर नहीं, मेरे आँसू बस उमड़ते रहते हैं।   

(3) 
तुम पूछने लगी हो अब
रोटियाँ नमकीन क्यों लगती हैं?
क्या कहूँ? आँसू बस रसोई में बरसते हैं!
  

  

सोमवार, 4 अक्टूबर 2010

तनहा शीशम


झड़ता शीशम ओस भीगे 
पत्ते उड़े धूप सहारे 
आँगन मेरा भर गए 
मन चमन कर गए। 

दूर किनारे घर तुम्हारा 
बीच के सब गेह लाँघ 
क्यों मेरी छ्त पसर गए?
मन चमन कर गए। 

बाग तुम्हारे तनहा शीशम 
पतझड़ में ज्यों ठूँठ शीशम 
नेह पल बिखरे शीशम
प्रार्थना हम कर गए
मन चमन कर गए। 

आज भी तनहा है शीशम
आज भी पतझड़ है शीशम  
आज भी ठूँठा है शीशम 
पत्ते सर सर रह गए
आँख भर भर तर गए।

हिमदेश में तुम कह गए  
मन भाव सब बस जम गए। 


शनिवार, 2 अक्टूबर 2010

हम हुए बुरधुधुर बढ़िया।

मित्रों और मित्रियों! अधोभाग की कविताएँ  वयस्कों के लिए है,बच्चों और बूढ़ों के लिए नहीं। 'परम' संस्कारवान लोगों के लिए भी नहीं हैं। संस्कारी लोगों के लिए(जो 'परम' से इतर हैं)  प्रेमकथा बरोबर चल रही है। जे बात और है कि कइयों को वो मजनू का भौंड़ापन लगती है। 
 ये कविताएँ उनके लिए भी नहीं हैं जो 'परम' पंडित हैं। ऐसे लोग जो एसी कमरे में बैठ कर किसी भी कवि की ऐसी तैसी करते हुए कविताओं को सहलाते रहते हैं, कृपया इन्हें न पढ़ें। देसज लोग ही इन्हें पढ़ें, वह भी अपने रिस्क पर! वे लोग भी पढ़ सकते हैं जिन्हें संझा भाखा, करकचही बोली, किचइन, औघड़ियों, जोगीड़ों और छायावादी पागलपन से घबराई गरम पकौड़ियों और खजोहरई की समझ है। ...न न ई कौनो रिएक्शन नहीं है। ऊ तो जब होगा तब होगा ही। असल में बाउ भी आजकल याद आने लगे हैं। तो...
 लस्टम पस्टम, ईश षष्टम,
 दुर्बी दुलाम दुलच्छणम 
भैंस चरे मसल्लमम। 
 कृपया इसे पढ़कर अपना दिल न दुखाएं! दुखने दुखाने के लिए और भी कई चीजें हैं। 
अभी दुनिया दरिद्र नहीं हुई है, दिल को क्यों कष्ट देना?  
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(1) 
बड़े बड़े हैं छँटे कमीने 
बाईं तरफ को गिरे कमीने
तशरीफ उठा कर झुके कमीने
शरीफ नहीं ये कवि कमीने  
क्या बताऊँ क्यों हुए कमीने? 
किस कमी ने किया कमीने?


(2) 
बताव बबुनी! केकरा से कहाँ मिले जालू? 
टोह लेत लेत भइल सूगर बेकालू
बताव बबुनी! केकरा से कहाँ मिले जालू?

अरे सूगर बेरामी कइसे भइल?
रामा कइसे भइल?

बजावत बजावत गाले गालू    
बड़ी खइलीं हम भूजल कचालू।
वइसे भइल, रामा वइसे भइल 
     
अब त बताइ द कहाँ मिले जालू? 


(3) 
ऊ हो बढ़िया तूहूँ बढ़िया 
बढ़िया से जब मिल गए बढ़िया 
हम हुए बुरधुधुर बढ़िया।