आज आप की ग़जल गुनगुनाई है।
लगता है जैसे हमारी बन आई है।
सुर ढूढ़ता रहा जिस्म-ए-साज में
आज जाना ये शै आलमें समाई है।
मतला, वजन, धुन,काफिये, बहर
मेहरबाँ, अनाड़ी ने महफिल सजाई है।
मिलेंगे उनसे आँख मिला कर पूछेंगे
हो इनायत, आज नीयत डगमगाई है।
चुप होंगें वे, हँसेंगे आँखों आँखों में
हुआ गजब,काफिर ने दिखाई ढिंठाई है।
सजाओ बन्दनवार गद्दी सँवारो पुकारो
बहक लहकी फिर,हर बात जो भुलाई है।
जो दूसरों की हैं, कवितायें हैं। जो मेरी हैं, -वितायें हैं, '-' रिक्ति में 'स' लगे, 'क' लगे, कुछ और लगे या रिक्त ही रहे; चिन्ता नहीं। ... प्रवाह को शब्द भर दे देता हूँ।
गुरुवार, 31 दिसंबर 2009
आज नीयत डगमगाई है.
मंगलवार, 29 दिसंबर 2009
नरक के रस्ते : अभिशप्त, उदास, अधूरी सिम्फनी
निवेदन और नरक के रस्ते - 1
नरक के रस्ते - 2
नरक के रस्ते - 3
नरक के रस्ते – 4
नरक के रस्ते - 5 से जारी....
____________________________________
शेर मर रहे हैं बाहर सरेह में
खेत में
झुग्गियों में
झोपड़ियों में
सड़क पर..हर जगह
सारनाथ में पत्थर हम सहेज रहे हैं
जय हिन्द।
मैं देखता हूँ
छ्त के छेद से
लाल किले के पत्थर दरक रहे हैं।
राजपथ पर कीचड़ है
बाहर बारिश हो रही है
मेरी चादर भीग रही है।
धूप भी खिली हुई है -
सियारे के बियाह होता sss
सियारों की शादी में
शेर जिबह हो रहे हैं
भोज होगा
काम आएगा इनका हर अंग, खाल, हड्डी।
खाल लपेटेगी सियारन सियार को रिझाने को
हड्डी का चूरन खाएगा सियार मर्दानगी जगाने को ..
पंडी जी कह रहे हैं - जय हिन्द।
अम्माँ ssss
कपरा बत्थता
बहुत तेज घम्म घम्म
थम्म!
मैं परेड का हिस्सा हूँ
मुझे दिखलाया जा रहा है -
भारत की प्रगति का नायाब नमूना मैं
मेरी बकवास अमरीका सुनता है, गुनता है
मैं क्रीम हूँ भारतीय मेधा का
मैं जहीन
मेरा जुर्म संगीन
मैं शांत प्रशांत आत्मा
ॐ शांति शांति
घम्म घम्म, थम्म !
परेड में बारिश हो रही है
छपर छपर छ्म्म
धम्म।
क्रॉयोजनिक इंजन दिखाया जा रहा है
ऑक्सीजन और हाइड्रोजन पानी बनाते हैं
पानी से नए जमाने का इंजन चलता है
छपर छपर छम्म।
कालाहांडी, बुन्देलखण्ड, कच्छ ... जाने कितनी जगहें
पानी कैसे पहुँचे - कोई इसकी बात नहीं करता है
ये कैसा क्रॉयोजेनिक्स है!
चन्नुल की मेंड़ और नहर का पानी
सबसे बाद में क्यों मिलते हैं?
ये इतने सारे प्रश्न मुझे क्यों मथते हैं?
घमर घमर घम्म।
रात घिर आई है।
दिन को अभी देख भी नहीं पाया
कि रात हो गई
गोया आज़ाद भारत की बात हो गई।
शाम की बात
है उदास बुखार में खुद को लपेटे हुए।
खामोश हैं जंगी, गोड़न, बेटियाँ, गुड्डू
सो रहे हैं कि सोना ढो रहे हैं
जिन्हें नहीं खोना बस पाना !
फिर खोना और खोते जाना..
सोना पाना खोना सोना ....
जिन्दगी के जनाजे में पढ़ी जाती तुकबन्दी।
इस रात चन्नुल के बेटे डर रहे हैं
रोज डरते हैं लेकिन आज पढ़ रहे हैं
मौत का चालीसा - चालीस साल
लगते हैं आदमी को बूढ़े होने में
यह देश बहुत जवान है।
जवान हैं तो परेड है
अगस्त है, जनवरी है
जवान हैं परेड हैं
अन्धेरों में रेड है।
मेरी करवटों के नीचे सलवटें दब रही हैं
जिन्दगी चीखती है - उसे क्षय बुखार है।
ये सब कुछ और ये आजादी
अन्धेरे के किरदार हैं।
मेरी बड़बड़ाहट
ये चाहत कि अन्धेरों से मुक्ति हो
ये तडपन कि मुक्ति हो।
मुक्ति पानी ही है
चाहे गुजरना पड़े
हजारो कुम्भीपाकों से ।
कैसे हो कि जब सब ऐसे हो।
ये रातें
सिर में सरसो के तेल की मालिश करते
अम्माँ की बातें
सब खौलने लगती हैं
सिर का बुखार जब दहकता है।
और?
.. और खौलने लगता है
बालों में लगा तेल
अम्माँ का स्नेह ऐसे बनता है कुम्भीपाक।
(हाय ! अब ममता भी असफल होने लगी है।)
माताएँ क्या जानें कि उनकी औलादें
किन नरकों से गुजर रही हैं !
अब जिन्दगी उतनी सीधी नहीं रही
जिन्दगी माताओं का स्नेह नहीं है।
भीना स्नेह खामोश होता है...
सब चुप हो जाओ।
अम्माँ, मुझे नींद आ रही है..जाओ सो जाओ।
..एक नवेली चौखट पर रो रही है
मुझे नींद आ रही है...
रविवार, 27 दिसंबर 2009
... कहता हूँ
.
.
.
.
अद्भुत कहूँ यह शक्ति नहीं, जो कहता हूँ सादा कहता हूँ
लगे बेसवादा, अड़बड़ा, झेल लो थोड़ा जियादा कहता हूँ।
विशाल है, जटिल है, कठिन है ये जिन्दगी, उतार दूँ ?
दावे नहीं, हैं सिसकियाँ, इन्हें सुखों का लबादा कहता हूँ।
.
.
.
अद्भुत कहूँ यह शक्ति नहीं, जो कहता हूँ सादा कहता हूँ
लगे बेसवादा, अड़बड़ा, झेल लो थोड़ा जियादा कहता हूँ।
विशाल है, जटिल है, कठिन है ये जिन्दगी, उतार दूँ ?
दावे नहीं, हैं सिसकियाँ, इन्हें सुखों का लबादा कहता हूँ।
शनिवार, 26 दिसंबर 2009
कविता के लिए
टूटें छन्द बन्ध
मुक्त भाव
अक्षर सम्बन्ध
बस निबह जाय।
बात हो जाय
कह लें सुन लें
और मन बह ले।
...
व्याकरण पहेरू
बाहर ही ठीक।
घरनी कविता
डपट दे पहेरू को
इतनी तेजस्विनी
मानवती तो हो !
_____________________________
मुक्त भाव
अक्षर सम्बन्ध
बस निबह जाय।
बात हो जाय
कह लें सुन लें
और मन बह ले।
...
व्याकरण पहेरू
बाहर ही ठीक।
घरनी कविता
डपट दे पहेरू को
इतनी तेजस्विनी
मानवती तो हो !
_____________________________
छ्न्द मानव जाति के जीवन से ही आते हैं। मुझे सॉनेट लिखने को कहो तो बगले झाँकने लगूँ, दोहा या घनाक्षरी कहो तो शायद कर जाऊँ। बहुतेरे ऐसे हैं कि वह भी न कर पाएँ लेकिन मन की बात कह सकें और आप को द्रवित कर सकें, सोचने पर मजबूर कर सकें या नाचने, वाह वाह करने को उकसा सकें तो कवि हैं ...
ग़जल मुझे नहीं आती। कोई छन्द नहीं आते। मैं लय को थोड़ा समझता हूँ। बस। अब आप व्याकरण सम्मत रचना चाहते हैं तो पहेरू का गुलाम बनना पड़ेगा। अब आप के उपर है - स्वामी रहना चाहते हैं, कविता को स्वामिनी बनाना चाहते हैं कि पहेरू के हाथ घर की चाभी देना चाहते हैं ! ..
मुक्त रचिए - गजलगोई का शौक है तो उसकी लय में रचिए। बस लय पर दृष्टि रखिए, जिस दिन सध गई उस दिन बल्ले बल्ले... आहा चिकनाक चिकनाक... लोग झूमेंगे नाचेंगे और रोएँगे सोचेंगे.. कोई यह पूछने नहीं आएगा कि बहर किस शहर गया या इसमें का मतला ठिगना है..
गुरुवार, 24 दिसंबर 2009
तपस्या
मेरे आत्मन् !
फीड नहीं लिया
ई मेल सब्सक्राइव नहीं किया
एग्रीगेटर नहीं देखता हूँ।
मुझे याद है तुम्हारे ब्लॉग का पता -
एक्सप्लोरर पर टाइप कर देखता हूँ।
मोबाइल का नेट
बहुत है धीमा।
किसी ने कहा
ऑफलाइन ऑप्सन प्रयोग करो
दुबारा जल्दी खुलेगा -
उन्हें क्या मालूम
तुम्हारे नए अक्षरों का धीमे धीमे उतरना
ऑनलाइन
कितना रोमाञ्चकारी लगता है !
बार बार कटते जुड़ते कनेक्शन में
होती टिप्पणियों का गुमना
कटना, दुबारा हो जाना -
मेरे आत्मन्
तुम क्या जानो ?
इस तपस्या में हमने जो पाया है!
फीड नहीं लिया
ई मेल सब्सक्राइव नहीं किया
एग्रीगेटर नहीं देखता हूँ।
मुझे याद है तुम्हारे ब्लॉग का पता -
एक्सप्लोरर पर टाइप कर देखता हूँ।
मोबाइल का नेट
बहुत है धीमा।
किसी ने कहा
ऑफलाइन ऑप्सन प्रयोग करो
दुबारा जल्दी खुलेगा -
उन्हें क्या मालूम
तुम्हारे नए अक्षरों का धीमे धीमे उतरना
ऑनलाइन
कितना रोमाञ्चकारी लगता है !
बार बार कटते जुड़ते कनेक्शन में
होती टिप्पणियों का गुमना
कटना, दुबारा हो जाना -
मेरे आत्मन्
तुम क्या जानो ?
इस तपस्या में हमने जो पाया है!
मंगलवार, 22 दिसंबर 2009
इंटीग्रेसन की किताब
जब मन था हैराँ, किसी के यूँ ही चले जाने से
जब मन था हैराँ, 'मित्र' के 'किसी' हो जाने से
मेरे मित्र मैंने तुम्हें लिखने को कहा , कागज मेरा था।
कुछ न पूछा तुमने और बस रच गए !
एक तुम हो और एक वह थे - दोनों अपने !!
आज 'हैं' को 'थे' कहते कलेजा मुँह को आता है ।
सोचता हूँ कि एक खत लिखूँ तुम दोनों को
लिखावट हो बस - !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
विस्मयादिबोधक चिह्न - अविश्वास से भरे हुए।
दोनों खतों के इन चिह्न अर्थों में होगा कितना अंतर ! (एक और विस्मय !)
विस्मय में भी कितना अंतर !
शब्द निरर्थक हो चले थे, आज चिह्न भी हो गए !
यूँ दुअर्थी या बहुअर्थी हो जाना निरर्थक ही तो होता है।
जब सोचता हूँ कि अनिश्चय की उस बहस बेला से -
समझ ले तुम कितनी समझ रच गए, तो होता हूँ हैराँ
क्या निकटता की ऊष्मा दूर ही अच्छी होती है ?
साँसों के जीवन में सृष्टि ने दुर्गन्ध क्यों घोली?
क्या यह इंगित कराने को कि दूरी रहनी ही चाहिए ?
अधिक निकटता हमें एक दूसरे से दूर ही करती है
हम जान जाते हैं जो एक दूसरे की सीमाएँ !
तुम्हारी भाषा में कहूँ तो योग के लिए सीमाएँ आवश्यक हैं
जब सीमाएँ होंगीं तो उनमें निम्न सीमा तो रहेगी ही
तुम उस उच्च सीमा को साधने को निम्न बन गए - सहर्ष !
तुमने दूरी को माप दे दिया - मेरे नाम के कागज पर रच कर।
इस माप को मैंने अपने औजारबक्से में रख लिया है
इसके दोनों छोरों पर मेरी सीमाएँ हैं।
मैं तुम दोनों का कृतज्ञ हूँ
उसने नहीं रचा मेरे कागज पर - उच्च सीमा।
तुमने रचा मेरे कागज पर - निम्न सीमा।
आज बहुत वर्षों के बाद मैंने अपनी इंटीग्रेसन की किताब खोली है ।
जब मन था हैराँ, 'मित्र' के 'किसी' हो जाने से
मेरे मित्र मैंने तुम्हें लिखने को कहा , कागज मेरा था।
कुछ न पूछा तुमने और बस रच गए !
एक तुम हो और एक वह थे - दोनों अपने !!
आज 'हैं' को 'थे' कहते कलेजा मुँह को आता है ।
सोचता हूँ कि एक खत लिखूँ तुम दोनों को
लिखावट हो बस - !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
विस्मयादिबोधक चिह्न - अविश्वास से भरे हुए।
दोनों खतों के इन चिह्न अर्थों में होगा कितना अंतर ! (एक और विस्मय !)
विस्मय में भी कितना अंतर !
शब्द निरर्थक हो चले थे, आज चिह्न भी हो गए !
यूँ दुअर्थी या बहुअर्थी हो जाना निरर्थक ही तो होता है।
जब सोचता हूँ कि अनिश्चय की उस बहस बेला से -
समझ ले तुम कितनी समझ रच गए, तो होता हूँ हैराँ
क्या निकटता की ऊष्मा दूर ही अच्छी होती है ?
साँसों के जीवन में सृष्टि ने दुर्गन्ध क्यों घोली?
क्या यह इंगित कराने को कि दूरी रहनी ही चाहिए ?
अधिक निकटता हमें एक दूसरे से दूर ही करती है
हम जान जाते हैं जो एक दूसरे की सीमाएँ !
तुम्हारी भाषा में कहूँ तो योग के लिए सीमाएँ आवश्यक हैं
जब सीमाएँ होंगीं तो उनमें निम्न सीमा तो रहेगी ही
तुम उस उच्च सीमा को साधने को निम्न बन गए - सहर्ष !
तुमने दूरी को माप दे दिया - मेरे नाम के कागज पर रच कर।
इस माप को मैंने अपने औजारबक्से में रख लिया है
इसके दोनों छोरों पर मेरी सीमाएँ हैं।
मैं तुम दोनों का कृतज्ञ हूँ
उसने नहीं रचा मेरे कागज पर - उच्च सीमा।
तुमने रचा मेरे कागज पर - निम्न सीमा।
आज बहुत वर्षों के बाद मैंने अपनी इंटीग्रेसन की किताब खोली है ।
शनिवार, 19 दिसंबर 2009
सियाही सियाही..
मन के उजले पर छिटकी है आज वक्त की सियाही
दु:ख के अक्षर बरसने लगे हैं
घर की छत का पनाला सियाही सियाही ।
उठता हूँ कि रोके है पलंग की चिर चिर
अलसाया है आलम ये वक्त, धरा है उनींदा, चिर चिर।
मत बातें करो चलने की
कि वक्त ठहरा ही रहा है, आज भी ठहरी हैं यादें
कोई पूछे है कि हुआ सब कैसे जाया
यूँ जाया । बिलाया। अलहदा सा सौदा ।
मैं कहता हूँ न पूछो कि जख्म रिसने लगे हैं।
वो: जज्बा-ए-बदला कि सँवार देंगे सब कुछ
पोंछ देंगे हर आँसू
खिलेंगे अनारदाने हर होठ की लाली
हर पालने में होगा एक खिलौना सा सपना
कि ज़िन्दगी होगी बस बरक्कत
न होगी जीने की फितरत मसक्कत -
सब हुए आज हैं अलहदा सा सौदा ।
मत बातें करो आज चलने की
दु:ख के अक्षर बरसने लगे हैं
सड़क है गढ़ही सियाही सियाही।
जिन को ले मशालें
जलानी थीं वो चौपालें जहाँ कटती हैं खालें
ज़िबह होते आदमी की जिन्दा मिसालें
वो: यूँ जा रहे हैं गो कि बस्ती है विराँ
उनके कानों टंगी है मोबाइल सियाही
सुनेंगे क्या वो मिसालें गवाही कि हाले तबाही ?
षड़यंत्र है ये आलिमों के जालिमों के
बैठे हैं वो तख्ते सियाही
लिए दामन उजले सियाही सियाही।
हाइवे पर उड़ता परिन्दा है भरमा
दरख्तों के साये बहकते सिसकते
हवाओं के झोंके अन्धे रेतीले
आँखों में तिलस्म भरते, सय्याद ये देखो सँवरते बने हैं।
जाल के भीतर उड़े हैं परिन्दे
ग़जब है बरक्कत कि जिन्दगी की मसक्कत
हो गई है ओझल। आहें फिजाँ में चहकने लगी हैं।
न पूछो कि हैराँ हूँ देखा किए हूँ तिलस्मे सियाही।
वो बाहों की मछलियाँ वो नजरों की तकलियाँ
वो जहीन चश्मे वाले वो टाई की गाँठें
वो छरहरे जिश्म वो दिमागों में इल्म -
बेकार बिला वजह सब बैठे हैं ठाले
चलेंगे भगेंगे कि क्षितिज पे सियाही
थकेंगे, फँसेंगे फेमिली बच्चे औ' रोजी
किसी दिन ऐसे ही बैठेंगे सोचेंगे कि
घर का पनाला उगले है सियाही।
देर हो रहेगी तब तक , ऐसे चलेगा कब तक
मैं सोचे हूँ- मेरे सामने है सियाह बोलेरो
उतरे हैं वो: उजले आलिम जालिम सियाही
दु:ख भग गया है दाँत निपोरे मैं हाथों को जोड़े
खड़ा हूँ - हे हे। मेरे पीछे है छुप गई सियाही सियाही।
सब ठीक है आओ बैठो मेरे कसाई सियाही -
जिबह के सामाँ छिटकने लगे हैं - खुशियाँ ही खुशियाँ।
मन के उजले पर छिटकी है आज वक्त की सियाही
दु:ख के अक्षर बरसने लगे हैं
घर की छत का पनाला सियाही सियाही ।
गुरुवार, 17 दिसंबर 2009
साँवली !
______________________________________
गए सप्ताह एक जूनियर महिला सहकर्मी ने सिविल इंजीनियरिंग की कुछ पुस्तकें माँगी। उनके पति को किसी परीक्षा के लिए चाहिए थीं। पढ़ाकू छवि होने से लोग निश्चित से रहते हैं कि मैंने कबाड़ सँजो कर रखा ही होगा। जाने कितनी पुस्तकों से मैं हाथ धो चुका हूँ - भुलक्कड़ स्वभाव और लेने वाले तो मंगन जाति दोष के कारण भुलक्कड़ हो ही जाते हैं :) ..
खैर पुस्तकें मेरे पास थीं, दे दीं। लेकिन चूँकि महिला के हाथ जानी थीं, इसलिए जाँच पड़ताल आवश्यक थी। असल में पढ़ाई के दौरान मेरी आदत थी कि कोई चित्र, कविता वगैरह अच्छी लगने पर उसे अखबार से काट कर पुस्तक के प्रारम्भ में चिपका देता था। राजीव ओझा जी के 'पढ़ै फारसी बेंचे तेल' वाले जुमले पर फिट होने वाला रूमानी स्वभाव ! बहुत बार ऐसे चित्र कलात्मक होते हुए भी 'संस्कारी' लोगों को धक्का पहुँचाने की योग्यता रखते थे। ..जाँच पड़ताल में ही यह चित्र और उसके नीचे पेंसिल से रची कविता दिख गई। मैंने उस पृष्ठ को फाड़ लिया। आज स्कैन कर पोस्ट कर रहा हूँ ... चित्र सम्भवत: कैलेण्डर चित्रकारी पर किसी अखबारी रिपोर्ट में से लिया गया था।
______________________________________
बुधवार, 16 दिसंबर 2009
पुरानी डायरी से - 10: कल्पना के लिए
6 फरवरी 1994, समय:__________ कल्पना के लिए
कभी कभी मैं सोचता हूँ माधवी -
मैं रहूँ, मेरा शून्य हो और तुम रहो।
मोमबत्ती का अँधेरा हो/ उजाला हो
हम तुम बातें करें - शब्दहीन
तुम्हारे अधर मेरे अधरों से बोलें
मेरे अधर तुम्हारे अधरों से बोलें
शब्दहीन।
कभी कभी मैं सोचता हूँ माधवी।
प्रात:काल में जब
सूर्य की किरणों से भयमुक्त
तुहिन बिन्दु सहलाते हों पत्तियों को ।
निशा जागरण के पलों से मुक्त होकर
मैं तुम्हें देखता रहूँ
अपलक
अविराम।
कभी कभी मैं सोचता हूँ माधवी।
दुपहर की चहल पहल में
किसी बाग के सनसनाते सन्नाटे में
मेरे श्वास नहा रहे हों
तुम्हारी तप्त साँसों की शीतलता में
और
घुल रहे हों हमारे एकाकी क्षणों में
किसी अनसुने गीत के बोल।
कभी कभी मैं सोचता हूँ माधवी।
संध्या के करियाते उजाले में जब
दीप जलायें या न जलायें
इस असमंजस में हो गृहिणी ।
उस समय हमारा मिलन छलकता हो
डूबते सूरज की लाली में।
हमारे बोल गूँजते हों चहचहाहट में।
कभी कभी मैं सोचता हूँ माधवी।
मैं रहूँ मेरा शून्य हो और तुम रहो
कभी कभी मैं सोचता हूँ।
कभी कभी मैं सोचता हूँ माधवी -
मैं रहूँ, मेरा शून्य हो और तुम रहो।
मोमबत्ती का अँधेरा हो/ उजाला हो
हम तुम बातें करें - शब्दहीन
तुम्हारे अधर मेरे अधरों से बोलें
मेरे अधर तुम्हारे अधरों से बोलें
शब्दहीन।
कभी कभी मैं सोचता हूँ माधवी।
प्रात:काल में जब
सूर्य की किरणों से भयमुक्त
तुहिन बिन्दु सहलाते हों पत्तियों को ।
निशा जागरण के पलों से मुक्त होकर
मैं तुम्हें देखता रहूँ
अपलक
अविराम।
कभी कभी मैं सोचता हूँ माधवी।
दुपहर की चहल पहल में
किसी बाग के सनसनाते सन्नाटे में
मेरे श्वास नहा रहे हों
तुम्हारी तप्त साँसों की शीतलता में
और
घुल रहे हों हमारे एकाकी क्षणों में
किसी अनसुने गीत के बोल।
कभी कभी मैं सोचता हूँ माधवी।
संध्या के करियाते उजाले में जब
दीप जलायें या न जलायें
इस असमंजस में हो गृहिणी ।
उस समय हमारा मिलन छलकता हो
डूबते सूरज की लाली में।
हमारे बोल गूँजते हों चहचहाहट में।
कभी कभी मैं सोचता हूँ माधवी।
मैं रहूँ मेरा शून्य हो और तुम रहो
कभी कभी मैं सोचता हूँ।
शब्दचिह्न :
कल्पना,
पुरानी डायरी,
माधवी
शुक्रवार, 11 दिसंबर 2009
डॉन के साए में कविता. .
घर के सामने पसरी तरई भर धूप
निहाल रहती है -
बैठते हैं एक वृद्ध उसकी छाँव में
आज कल।
मैं सोचता हूँ -
कितनी उदास रही होगी
अकेली उपेक्षित धूप अब के पहले तक !
कल मैंने सुना घर को
सामने के पार्क से बतियाते
देखो, कौन आया है !
मैं समृद्ध हूँ
अतिरिक्त
आज कल मेरी दो साल पुरानी दीवारें
घेरे रहती हैं - पचहत्तर वर्षों की समय सम्पदा।
मैं द्रष्टा और अनुकरणशील हूँ
मुझ डिक्टेटर पर छा गया है अनुशासन -
डॉन आए हैं।
पिताजी आए हैं, आज कल।
घर के घेरे का सीमित यंत्रवत सा दैनन्दिन
प्राण धन पा उचक उछल दौड़ गया है -
बाहर ।
मैं देख रहा हूँ
घर को घेरे हुए हैं
स्नेह की रश्मियाँ
जैसे माँ के आँचल में सोया शिशु
धीमे धीमे मुस्कुरा रहा है।
मैं अपना ही साक्षी हो गया हूँ।
आज कल मैं 'बाबू' हो गया हूँ -
ये वृद्ध भी कितनी बचपना जगा देते हैं !
निहाल रहती है -
बैठते हैं एक वृद्ध उसकी छाँव में
आज कल।
मैं सोचता हूँ -
कितनी उदास रही होगी
अकेली उपेक्षित धूप अब के पहले तक !
कल मैंने सुना घर को
सामने के पार्क से बतियाते
देखो, कौन आया है !
मैं समृद्ध हूँ
अतिरिक्त
आज कल मेरी दो साल पुरानी दीवारें
घेरे रहती हैं - पचहत्तर वर्षों की समय सम्पदा।
मैं द्रष्टा और अनुकरणशील हूँ
मुझ डिक्टेटर पर छा गया है अनुशासन -
डॉन आए हैं।
पिताजी आए हैं, आज कल।
घर के घेरे का सीमित यंत्रवत सा दैनन्दिन
प्राण धन पा उचक उछल दौड़ गया है -
बाहर ।
मैं देख रहा हूँ
घर को घेरे हुए हैं
स्नेह की रश्मियाँ
जैसे माँ के आँचल में सोया शिशु
धीमे धीमे मुस्कुरा रहा है।
मैं अपना ही साक्षी हो गया हूँ।
आज कल मैं 'बाबू' हो गया हूँ -
ये वृद्ध भी कितनी बचपना जगा देते हैं !
बुधवार, 9 दिसंबर 2009
चिपट बैठो रिक्शे..
देखो
बोगनबेल फूली
लखनबूटी शरमाई
शीत ऋतु आई।
रसिक ओस लिपटी
मंजरी हरसाई
तुलसी के बिरवा
सँवर ऋतु आई।
प्रात अलसाई
घड़ी को भुलाने
ओढ़ी रजाई।
धुन्ध नज़रबन्द
टोनहिन ठिठुराई
दुनिया भरमाई।
भीतर है सुरसुर
बाहर हवा सिसकाई।
चिपट बैठो रिक्शे
ताके है
झाँके है
दरम्याँ ये दूरी
ठंडी पछुवाई।
शीत ऋतु आई।
बोगनबेल फूली
लखनबूटी शरमाई
शीत ऋतु आई।
रसिक ओस लिपटी
मंजरी हरसाई
तुलसी के बिरवा
सँवर ऋतु आई।
प्रात अलसाई
घड़ी को भुलाने
ओढ़ी रजाई।
धुन्ध नज़रबन्द
टोनहिन ठिठुराई
दुनिया भरमाई।
भीतर है सुरसुर
बाहर हवा सिसकाई।
चिपट बैठो रिक्शे
ताके है
झाँके है
दरम्याँ ये दूरी
ठंडी पछुवाई।
शीत ऋतु आई।
रविवार, 6 दिसंबर 2009
मेरे राम ...
मेरे राम
तुम कसौटी नायक हो।
तुम सार्वकालिक अभागे हो।
000
मेरे सामने जाने कितने बाली हैं
आधी क्या पूरी ताकत हर लेते हैं।
तुम कसौटी नायक हो।
तुम सार्वकालिक अभागे हो।
000
मेरे सामने जाने कितने बाली हैं
आधी क्या पूरी ताकत हर लेते हैं।
उनसे लड़ना है लेकिन
छिपना नहीं है
मैं तुम्हारे समान
कायर नहीं।
मेरी कसौटी है
भले न लड़ूँ लेकिन
उनके लिए वृक्ष अवश्य
बनूँ
ताकि मेरी आड़ ले
वे मार सकें तुम्हारे
जैसे मानवाधिकारों के हनक को।
मैं इस तरह से खुले
में खड़ा लड़ता रहता हूँ
देखो कितने घाव खाए
हैं-
मैं तुम्हारी तरह कायर
नहीं।
000
सीता की अग्नि परीक्षा तो जाने हुई या नहीं
000
सीता की अग्नि परीक्षा तो जाने हुई या नहीं
पर अभी भी तुम उसकी
कसौटी पर कसे जाते हो
मानो मेरी बात
जाने कितने उदारवादी और (चाहे जो) वादी हो गए
प्रगतिशील हो गए
तुम्हें अग्नि परीक्षा की कसौटी पर कस कर।
मैं तुम्हें कसता हूँ
खग मृग तरु से सीता का हाल पूछ्ते तुम्हारे आँसुओं पर।
सोचता हूँ कित्ता मूरख हूँ।
000
वे अभागे ऋषि महर्षि
अस्थि क्षेत्रों में तप करते
उनका मांस तक कोमल हो जाता था।
सुस्वादु राक्षस भोज।
राम तुम क्यों गए
उन सुविधाभोगियों के लिए लड़ने?
देखो इस वातानुकूलित लाइब्रेरी में
फोर्ड फाउंडेसन की स्कॉलरशिप जेब में डाले
कितने लोग विमर्श कर रहे हैं
इनकी कसौटी पर तुम हमेशा अपने को नकली पाओगे
राम! तुम कितने अभागे हो।
000
जाने किन शक हूणों के चारण कवियों ने
तुमसे शम्बूक वध करा डाला
उसकी कसौटी से तुम्हें दलित साहित्य परख जाता है
तुम उस कसौटी पर हो एक राजमद मत्त सम्राट
घनघोर वर्णवादी।
मैं अपनी कसौटी हाथ लिए भकुवाया रहता हूँ
कि तुम कसने से कुछ बच खुच गए हो
तो कसूँ तुम्हें
निषादराज के आलिंगन में
चखूँ तुम्हें शबरी के जूठे बेरों में।
कसूँ तुम्हें वानर भालुओं के
उछाह भरे शौर्य पर
(दलित शोषित लिखूँ क्या?
लेकिन वे तो इंसान हैं।
बात चीत करते
परिवारी वानर भालुओं की तरह
राक्षसों के आहार नहीं हैं वे)
वह आत्मविश्वास कैसे भर गए थे उनमें
खड़े हो गए वे नरमांस के आदियों के सामने
आहार नहीं समाहार बन, उनका संहार बन।
क्या वह केवल अपनी बीबी को वापस लाने को था
ताकि तुम्हारा पौरुष फिर से गौरव पा सके ?
मेरी कसौटी कुछ अधिक बर्बर है
लेकिन क्या करूँ?
तुम्हें ऐसे न कसूँ तो प्रगतिशील कैसे कहाऊँ!
000
विभीषण को राक्षस राज्य सौंप
मानो मेरी बात
जाने कितने उदारवादी और (चाहे जो) वादी हो गए
प्रगतिशील हो गए
तुम्हें अग्नि परीक्षा की कसौटी पर कस कर।
मैं तुम्हें कसता हूँ
खग मृग तरु से सीता का हाल पूछ्ते तुम्हारे आँसुओं पर।
सोचता हूँ कित्ता मूरख हूँ।
000
वे अभागे ऋषि महर्षि
अस्थि क्षेत्रों में तप करते
उनका मांस तक कोमल हो जाता था।
सुस्वादु राक्षस भोज।
राम तुम क्यों गए
उन सुविधाभोगियों के लिए लड़ने?
देखो इस वातानुकूलित लाइब्रेरी में
फोर्ड फाउंडेसन की स्कॉलरशिप जेब में डाले
कितने लोग विमर्श कर रहे हैं
इनकी कसौटी पर तुम हमेशा अपने को नकली पाओगे
राम! तुम कितने अभागे हो।
000
जाने किन शक हूणों के चारण कवियों ने
तुमसे शम्बूक वध करा डाला
उसकी कसौटी से तुम्हें दलित साहित्य परख जाता है
तुम उस कसौटी पर हो एक राजमद मत्त सम्राट
घनघोर वर्णवादी।
मैं अपनी कसौटी हाथ लिए भकुवाया रहता हूँ
कि तुम कसने से कुछ बच खुच गए हो
तो कसूँ तुम्हें
निषादराज के आलिंगन में
चखूँ तुम्हें शबरी के जूठे बेरों में।
कसूँ तुम्हें वानर भालुओं के
उछाह भरे शौर्य पर
(दलित शोषित लिखूँ क्या?
लेकिन वे तो इंसान हैं।
बात चीत करते
परिवारी वानर भालुओं की तरह
राक्षसों के आहार नहीं हैं वे)
वह आत्मविश्वास कैसे भर गए थे उनमें
खड़े हो गए वे नरमांस के आदियों के सामने
आहार नहीं समाहार बन, उनका संहार बन।
क्या वह केवल अपनी बीबी को वापस लाने को था
ताकि तुम्हारा पौरुष फिर से गौरव पा सके ?
मेरी कसौटी कुछ अधिक बर्बर है
लेकिन क्या करूँ?
तुम्हें ऐसे न कसूँ तो प्रगतिशील कैसे कहाऊँ!
000
विभीषण को राक्षस राज्य सौंप
सुग्रीव
को वानर राज्य सौंप
निषादराज
को जंगल, नदी, वन का दायित्त्व सौंप
तुम दरिद्र!
ऐश्वर्य पा इतने बौरा गए!
हजारो अश्वमेध यज्ञ कर गए?
राम !
बड़ा विरोधाभासी चरित्र है तुम्हारा!!
चरित्र की कसौटी पर तुम 'फेल' हो।
000
लांछ्न पर सीता को हकाल दिए
कैसी पीड़ा थी राम!
तुम्हारी रातें कैसी थीं राम
भोग विलास आनन्द कैसे थे राम!
सीता त्याग के बाद?
मुआफ करना मुझे यह सब पूछ्ना है
क्यों कि किसी सिरफिरे ने कहा है
तुमने ग्यारह हजार साल राज किया
सीता त्याग वाली बात उसी ने बताई थी
सच ही कहा होगा।
तुम नारी विरोधी !
मेरी कसौटी झूठ की कसौटी भले सही
तुम्हें कसना तो होगा ही।
(कोई मुझे बकवासी कह रहा है।)
000
तुम पाखंडी!
इतने निस्पृह अनासक्त थे तो
सीता भू-प्रवेश के बाद
लक्ष्मण को क्यों त्याग दिए?
स्वयं आत्महत्या कर गए
सरयू में छलांग लगा
कैसी कसौटी थी वह राम ?
मुझे हैरानी होती है
कोई तुम्हारी आत्महत्या की बात क्यों नहीं करता?
000
मेरे राम
कसौटियाँ सेलेक्टिव हैं
तुम हमेशा इन पर कसे जाओगे।
तुम्हारे जन्मस्थान के कसौटी स्तम्भ नकली थे
ढहा दिए गए।
इस ठिठुरती सर्दी में
सम्राट राम !
किसी गरीब रिक्शेवाले के साथ
तुम भी खुले में सो जाओगे।
मेरी इस कविता पर कुछ लोग हँसेंगे
कहेंगे इसे इसलिए दु:ख है कि
सम्राट और रिक्शेवाला एक साथ क्यों हैं?
मेरी कसौटी का संहार
मेरी बकवास और कंफ्यूजन का अंत
हर सुबह होता है राम
जब मैं सुनता हूँ
जम्हाई लेते रिक्शेवाले के मुँह से
पहली आवाज़
हे राम
मेरे राम . . .
ऐश्वर्य पा इतने बौरा गए!
हजारो अश्वमेध यज्ञ कर गए?
राम !
बड़ा विरोधाभासी चरित्र है तुम्हारा!!
चरित्र की कसौटी पर तुम 'फेल' हो।
000
लांछ्न पर सीता को हकाल दिए
कैसी पीड़ा थी राम!
तुम्हारी रातें कैसी थीं राम
भोग विलास आनन्द कैसे थे राम!
सीता त्याग के बाद?
मुआफ करना मुझे यह सब पूछ्ना है
क्यों कि किसी सिरफिरे ने कहा है
तुमने ग्यारह हजार साल राज किया
सीता त्याग वाली बात उसी ने बताई थी
सच ही कहा होगा।
तुम नारी विरोधी !
मेरी कसौटी झूठ की कसौटी भले सही
तुम्हें कसना तो होगा ही।
(कोई मुझे बकवासी कह रहा है।)
000
तुम पाखंडी!
इतने निस्पृह अनासक्त थे तो
सीता भू-प्रवेश के बाद
लक्ष्मण को क्यों त्याग दिए?
स्वयं आत्महत्या कर गए
सरयू में छलांग लगा
कैसी कसौटी थी वह राम ?
मुझे हैरानी होती है
कोई तुम्हारी आत्महत्या की बात क्यों नहीं करता?
000
मेरे राम
कसौटियाँ सेलेक्टिव हैं
तुम हमेशा इन पर कसे जाओगे।
तुम्हारे जन्मस्थान के कसौटी स्तम्भ नकली थे
ढहा दिए गए।
इस ठिठुरती सर्दी में
सम्राट राम !
किसी गरीब रिक्शेवाले के साथ
तुम भी खुले में सो जाओगे।
मेरी इस कविता पर कुछ लोग हँसेंगे
कहेंगे इसे इसलिए दु:ख है कि
सम्राट और रिक्शेवाला एक साथ क्यों हैं?
मेरी कसौटी का संहार
मेरी बकवास और कंफ्यूजन का अंत
हर सुबह होता है राम
जब मैं सुनता हूँ
जम्हाई लेते रिक्शेवाले के मुँह से
पहली आवाज़
हे राम
मेरे राम . . .
बुधवार, 2 दिसंबर 2009
पुरानी डायरी से - 8: गीताञ्जलि के लिए
_________, समय:__________ गीताञ्जलि के लिए
प्रिय!
कल खड़ी थी तुम्हारे द्वार
रीतियों के वस्त्र पहने
परम्परा का कर श्रृंगार
तूने कपाट नहीं खोले
लौट गई मैं निराश -
आज फिर खड़ी द्वार
प्राकृतिक
वस्त्र हीना ।
बस कुंकुम अंकित भाल
प्रिय द्वार खोलो न -
नग्नता का अभिसार
कितना सुन्दर !
पहना दो आलिंगन वस्त्र
कर दो स्पर्श श्रृंगार
भर रोम रोम मादक रस धार।
प्रिय!
द्वार खोलो
देखो
नग्नता कितनी सुन्दर है !
प्रिय!
कल खड़ी थी तुम्हारे द्वार
रीतियों के वस्त्र पहने
परम्परा का कर श्रृंगार
तूने कपाट नहीं खोले
लौट गई मैं निराश -
आज फिर खड़ी द्वार
प्राकृतिक
वस्त्र हीना ।
बस कुंकुम अंकित भाल
प्रिय द्वार खोलो न -
नग्नता का अभिसार
कितना सुन्दर !
पहना दो आलिंगन वस्त्र
कर दो स्पर्श श्रृंगार
भर रोम रोम मादक रस धार।
प्रिय!
द्वार खोलो
देखो
नग्नता कितनी सुन्दर है !
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