गुरुवार, 24 दिसंबर 2009

तपस्या

मेरे आत्मन् !
फीड नहीं लिया
ई मेल सब्सक्राइव नहीं किया
एग्रीगेटर नहीं देखता हूँ।
मुझे याद है तुम्हारे ब्लॉग का पता -
एक्सप्लोरर पर टाइप कर देखता हूँ।

मोबाइल का नेट
बहुत है धीमा।
किसी ने कहा
ऑफलाइन ऑप्सन प्रयोग करो
दुबारा जल्दी खुलेगा -
उन्हें क्या मालूम
तुम्हारे नए अक्षरों का धीमे धीमे उतरना
ऑनलाइन
कितना रोमाञ्चकारी लगता है !

बार बार कटते जुड़ते कनेक्शन में
होती टिप्पणियों का गुमना
कटना, दुबारा हो जाना -
मेरे आत्मन्
तुम क्या जानो ?
इस तपस्या में हमने जो पाया है!

12 टिप्‍पणियां:

  1. अहा.. आईटीमय पोस्ट!

    और क्या पाया है सिवा महीने-महीने के मोटे डाटा-बिल के अलावा.. और जो पाया भी है रूहानी सा-रूमानी सा, उसकी क्या क़ीमत दुनिया की नजरों में..!

    जवाब देंहटाएं
  2. हाँ...इस शनै शनै लो बैंड की ट्राफिक में अठेखेयाँ करतीं, मदमस्त चाल में तिपन्नियों का अविर्भाव कितना सुखद होता होगा...ये भला वो हाई स्पीड वाले क्या जाने...निखट्टू कहीं के....
    इस लो बैंड ने कितनी ही कविताओं को जन्म दे दिया है.....हम इंतज़ार करेंगे तेरा नज़र आने तक....खुदा करे की कन्नेक्शन हो और तू आयेSSSSSSSSS

    जवाब देंहटाएं
  3. राव साहब !
    आपके हर प्रयोगों पर आपकी ही बात कहता हूँ ---
    '' तुम्हारे नए अक्षरों का धीमे धीमे उतरना ''
    और कभी - कभी तो बाउंस भी हो जाना ..
    कुछ दिन बाद तो आपके प्रयोगों पर यूँ
    चर्चा होगी ---
    --- आहगत - प्रयोग !
    --- चाहगत - प्रयोग !
    --- कराहगत - प्रयोग !
    --- निबाहगत - प्रयोग !
    --- आदि-आदि .. अब आगे क्या सीरीज बनाऊं ,
    भाव अधिक मति थोर हमारी ...
    ........... कविता सुन्दर है ...
    बाउंस नहीं हुई , मुझ जैसा 'अनट्रेंड' भी समझ गया ,
    ........... आभार ,,,

    जवाब देंहटाएं
  4. तपस्या तो है ही.

    -महातपी समीर लाल 'उड़न तश्तरी वाले'

    जवाब देंहटाएं
  5. आप इधर धीमें धींमें डेटा ओपन होने को ले परेशान हैं, उधर एक मध्यकालीन कवि ने कालीन पर बैठकर कविता रच डाली अपनी प्रेयसी के नाम :)

    just for fun........नोश फरमाएं :)


    तुम लगती हो इक ब्लू.... टूथ प्रिये

    जब डिवाईस की सर्चिंग होती है प्रिये
    तुम रेंज में मेरी आ जाती हो
    मैं बिन तार ही कम्यून जो करता हूँ
    एक्सेप्ट उसे तुम कर जाती प्रिये
    तुम लगती हो इक ब्लू.... टूथ प्रिये


    सोचता हूं मैं बैठे बैठे ही प्रिये
    और डिवाइस सर्च तो होते ही होंगे
    तुम सबकी रेंज में आ जाती हो
    क्या हम ठहरे ठल्ले हैं प्रिये
    तुम लगती हो इक ब्लू.... टूथ प्रिये

    हम कब तक बातें करते ही रहें
    वो बातें जिनकी कोई रेंज ना हो
    वो रेंज बताओ जिसमें तुम्हे
    डेटा भेजें और चेंज ना हो :)

    तुम लगती हो इक ब्लू.... टूथ प्रिये
    तुम लगती हो इक ब्लू.... टूथ प्रिये

    जवाब देंहटाएं
  6. मुझे तो वो गजल के बोल याद आ रहे हैं ..वो जिबह भी करते हैं तो आहिस्ता आहिस्ता ...
    सावधान और सजग ही रहिये(मतलब मेरी तरह बुडबक ही मत बनिए ) अभी तो यह आभासी दुनिया धीरे धीरेचेतन /अवचेतन में पैबस्त हो रही है मगर कहीं अचानक ही भुर्धराकार बन पूरा वजूद ही न आकंठ कर ले !
    यह तो आपके प्रारब्ध के पुण्य हैं की टेक्नीक आकर अंगद का पांव टिका दे रही है राह में !
    यह राह में रोड़ा नहीं है भाई -बस अंगद का पांव है !

    जवाब देंहटाएं
  7. यह नया प्रयोग है हिन्दी कविता का, विशुद्ध ब्लागीरी वाला।

    जवाब देंहटाएं
  8. हम क्या कहें । कहने तो बैठ ही गये अमरेन्दर भइया !
    पिछली दो पोस्ट निबका गये - टिप्पणी ही नहीं की । कैसे करें - ’कहि न जाय का कहिये ।" मतलब चुप्पै रहिये ।
    "फीड नहीं लिया, ई-मेल सबस्क्राइब नहीं किया, एग्रीगेटर नहीं देखता" - वाया जाने की आपकी आदत ही कहाँ है । इसीलिये न झटक के पहुँच जाते हैं सीधे ही पता टाइप करके ।

    "कुछ तेरा हुस्न भी है सादा औ मासूम बहुत
    कुछ मेरा प्यार भी शामिल तेरी तस्वीर में ।"- यही बात है न ! धीमे नेट कनेक्शन का और मजा लेने के लिये फॉयरफॉक्स, ओपेरा, सफारी भूल जाते हैं, एक्स्प्लोरर पर टाइप करने लगते हैं । वाह !

    जवाब देंहटाएं
  9. उन्हें क्या मालूम
    तुम्हारे नए अक्षरों का धीमे धीमे उतरना
    ऑनलाइन
    कितना रोमाञ्चकारी लगता है !

    कवि..! तुम्हारे लिए तो हर क्षण-हर हलचल मे कविता है..!

    ऐसी कविताओं का भी एक अलग ही तरंग दैर्ध्य है और गज़ब लुभाती हैं भी बरबस..!

    जवाब देंहटाएं