कल शब्दों ने कहा -
कुछ अधिक ही होते हो तुम
अपने लिखे में,
यह ठीक नहीं -
और चुप हो गये।
मेरे मस्तिष्क में यह साफ था
कि ये सारे शब्द आपस में बातें नहीं करते
तो मैं क्यों इनसे बात करूँ? - मैं चुप रहा।
मेरे कुछ सेकेंड चुप
रहने पर
'अभिव्यक्ति' 'संवाद' 'संप्रेषण' आदि शब्द मित्रों ने
पूछा - चुप क्यों हो गए? कुछ कहो।
'ईमानदारी' ने भी उकसाया
लेकिन 'आत्ममुग्धता' ने रोक दिया।
मैं कुछ कहूँ इसके पहले ही
'छ्न्द' नामधारी ने कहा -
तुमसे कोई आशा नहीं रही
तुममें अराजकता झलकती है
और लापरवाही, आलस्य, प्रदर्शनप्रियता भी
चमत्कारबाजी भी।
ऊपर से धृष्टता इतनी कि घोषित कर चुके हो
'मेरी सिर्फ _वितायें हैं और दूसरों की कवितायें'।
'छ्न्द इतने शब्दों को यूँ लपेट सकता है!'
मुझे आश्चर्य हुआ।
पुन: आश्चर्य हुआ -
इतना कुछ कहने के बाद भी
उसके लपेटे किसी शब्द ने मुझसे कुछ नहीं कहा।
'व्यसन' धीरे से पास आकर बोला -
तुम इसलिए लिखते हो कि मेरे प्रभाव में हो।
मैं होता इसके पहले ही 'स्तब्ध' ने कहा -
न, न! मेरा नाम भी मत लेना।
मैं 'कोरा' हो गया
जब कि वह स्वयं लिख रहा था
एक पत्र किसी 'सुरमई' को।
यकायक सब भाग गए
और बस 'चुप्पी' रह गयी।
उसका हाथ पकड़े 'प्रेम' आया
प्रेम ने कहा -
उन सबकी बातों पर न जाओ
हमारे बारे में रचो, लिखो
हमें इससे कुछ अंतर नहीं पड़ता
कि अपने लिखे में तुम ही तुम रहते हो।
हमें तुम्हारे न लिखने से अन्तर पड़ता है -
तुम न कहोगे तो कौन कहेगा
हमारे प्रेम के बारे में?
मैं खासा उलझ गया।
उसने मेरी पीठ पर एक धौल जमाई
और 'चुप्पी' के साथ अपने अधर जोड़ दिये।
मैं शर्माया,
अपनी कलम को चूमा
और रचने लगा।
'चमत्कार' आया
बिन माँगे प्रमाण पत्र दे गया -
इसमें न तो मैं हूँ और न मेरा कोई हाथ है।...
अब जब कि मैं यह प्रकरण लिख चुका हूँ,
मैंने कहा है - क्या बात है!
मुझे 'आत्ममुग्धता' ने गुदगुदाया है
मैंने उससे कहा है - मुझे तुमसे प्रेम नहीं।
उसने कहा है - तुम्हारी परवाह ही कौन करता है?
मैं 'शब्द' और 'भावना' को लेकर
अर्द्धनारीश्वर की कल्पना कर रहा हूँ -
'कल्पना' दूर दूर तक नहीं है
और 'सचाई' पास आ बैठी है।
वाह मन के अन्तर्दुअन्द कई बार ऐसे ही शब्दों से खेलते है। शुभकामनायें।
जवाब देंहटाएंक्या कहूँ इस अभूतपूर्व कविता के लिये………………सीधा दिल मे उतर गयी………………बेहद गहन अभिव्यक्ति…………शब्दो के संसार मे विचरण करने पर ऐसी ही रचनाये निकल कर आती हैं।
जवाब देंहटाएंशब्दों और भावनाओं का ऐसा मेल अद्भुत ही है ...
जवाब देंहटाएंशब्दों के इस खेल में आप ने कितना कुछ कह दिया है...अद्भुत रचना है ये आपकी...शब्दों का ऐसा प्रयोग बहुत विरल है...मेरी ढेर सी बधाई स्वीकारें.
जवाब देंहटाएंनीरज
कितने अन्तर्द्वन्दों से होकर जाती है शब्दों की यात्रा और पाठक के लिये भी उतने ही प्रभावों को प्रस्फुटित कर देती है वह शब्दों की कारीगरी। अद्भुत अभिव्यक्ति की सहज यात्रा।
जवाब देंहटाएंपढ़कर तो लगता है कि बड़ी सहजता से मन की बेचैनी उड़ेल दी गई है। गुनो तो लगता है कि कितनी वेदना सही होगी कवि ने अभिव्यक्ति से पहले...!
जवाब देंहटाएं..शब्दों का चमत्कार!चमत्कार को नमस्कार।
......यकायक सब भाग गए
जवाब देंहटाएंऔर बस 'चुप्पी' रह गयी।
बस यहां तक के लिये यह कमेन्ट:
आत्ममुग्धता कुछ बहुत बुरी चीज तो नहीं है .....;) ...लेकिन अगर आप विचार कर ही रहे हैं तो अच्छा है ! यहां आपकी यह कविता मूलतः दो प्रश्नॊं का उत्तर ढ़ूढने की कोशिश कर रही है--
१. कविता का हमारे जीवन में अभिप्राय क्या है ? यह हमारे अस्तिव्त/व्यक्तित्व के लिये किस प्रकार व किस हद तक उन्नयनकारी है ? है कि नहीं है?
यह प्रश्न सीधे सीधे इस कविता में परिलक्षित नहीं हो रहा है लेकिन बात यह है मन में कहीं न कहीं ! ऐसा लगता है ! ...
२. कविता में कवि का हस्तक्षेप किस तरह होना चाहिये , कितना होना चाहिये ? क्या कविता को कवि के व्यक्तिव्त से बिलकुल पृथक करके पढ़ा जा सकता है ? अथवा नहीं ?
(यह तो आपकी मूल समस्या है जिसे आप अलग अलग ढ़ंग से अलग अलग जगह बार बार अभिव्यक्त करते है ! ! ....और यह एक बड़ा इशू भी है ...पोस्टमाडर्निज्म..डिकन्सट्रक्शनिज्म....भी इस बारे सोच रहे हैं ! )
तो प्रश्न तो हो गया ! शेष आधी कविता पर लिखूंगा तो उत्तर के बारे में सोचेगें........