मंगलवार, 4 जनवरी 2011

कंस्ट्रक्शन साइट से - 1

तपता सूरज निकाल कर ही मानेगा
देह से सारे रस
काले कागज नक्शे सी फटी धरती –
बबूलों के बटवारे बिछा रही।
काँटों ने छिल डाले, गोद डाले
चेहरे के पोर पोर
समुद्र से आई हवायें
दुलार भर भर आँचल में
सफेद बारीक नमकीन सहलाहटें
जल उठे पोर पोर।
घुसा पसीना आँखों में
मिचमिचाहट, किरकिरी
चेहरे की चुनचुनी से पूछ रही
तू बड़ी की मैं बड़ी?

जम गई हवा के प्यार की लुनाई
सफेद सफेद।
भौंह पर, पलक पर, गाल पर
नाक पर और चश्मे पर भी
जाने कहाँ कहाँ कैसे क्षरण कर रही –
बम्बैया बॉस कह गया –
तू तो काला हो गया रेss  
छ: मीटर बीम के नीचे
गोरी हँसी – फिस्स!
घाम घायल लाल रुख
दूजी लाली फैल गई – हिस्स!
मैंने हैट लगाया
याद आई पूरबी बहुरिया
और छाँह हो गई -  सिस्स!

देख रहा नैन मटक्का
बूढ़ा मदन
चौकीदार।
साहब! अकेले राउंड पर न जाया करो
यह लाट देस है।
देखते नहीं,
सहलाती हवायें भी
भर जाती हैं पोर पोर जलन।
बहुत खारी हैं!
खारे पानी से प्यास नहीं बुझती।
थूक दिया है उसने सुरती – पिच्च!
हँई बस्ती जिला के बाबू हमहूँ!”
दाल नमक के लिए सहेजता हूँ
खारी हवायें जेब में।

हैट उतार कर रेलवे टाइम टेबल से 
बान्द्रा एक्सप्रेस का समय बीन रहा।  
मैं बस
फिस्स, हिस्स, सिस्स,
पिच्च!
     

6 टिप्‍पणियां:

  1. यही शब्द गूँजते हैं, निर्माण के प्रमाण हैं।

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  2. @साहब! अकेले राउंड पर न जाया करो
    यह लाट देस है।
    ...रीतिरात्मा काव्यस्य ...कहनेवाले आचार्यों ने रीति-भेद में 'लाटी' रीति की चर्चा की है. आपके इस लाट देश में ही प्रचलित रही होगी वह रीति.

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