बुधवार, 26 जनवरी 2011

तिलस्मी बहुत हैं रंगों के उजाले

कुछ नहीं बदला पिछले एक वर्ष में। कुछ काट छाँट और एक जोड़ के साथ दुबारा प्रस्तुत:  


 जिस दिन खादी कलफ धुलती है।सजती है लॉंड्री बेवजह खुलती है।


ये अक्षर हैं जिनमें सफाई नहीं
आँखों में किरकिर नज़र फुँकती है।

गाहे बगाहे जो हम गला फाड़ते हैं,
चीखों से साँकल चटक खुलती है।

रसूख के पहिए जालिम जोर जानी,
जब चलती है गाड़ी डगर खुदती है।

आईन है बुलन्द और छाई है मन्दी,
महफिल-ए-वाहवाही ग़जब सजती है।

साठ वर्षों से पाले भरम हैं गाफिल,
जो गाली भी हमको बहर लगती है।

सय्याद घूमें पाए तमगे सजाए,आज बकरे की माँ कहर दिखती है।


पथराई जहीनी हर हर्फ खूब जाँचे,
ग़ुमशुदा तलाश हर कदम रुकती है।

खूब बाँधी हाकिम ने आँखों पे पट्टी,
बाँच लेते हैं अर्जी कलम रुकती है।

तिलस्मी बहुत हैं रंगों के उजाले 
नीले चक्के के आगे नज़र चुँधती है। 
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 गिरिजेश राव