प्रात समय
किरणें झूमें गली गली
हरसिंगार झर झर झर झर
बन्द आँखें तुलसी के बिरवा
खुले केश छू लूँ?
धुत्त !
सुनो कुकर की सीटी
..गैस धीमी कर दो।
साँझ हुई
कर्मठ बिजली बिखेरे
चाँदी सोना गली गली
आँचल ढका मस्तक
लौ लगाती दीप बाती
लाइट बुझा दूँ ?
धुत्त !
देवता द्वार से लौट जाएँगे।
ha ha mazedaar....
जवाब देंहटाएंबहुत शानदार!
जवाब देंहटाएंदेवताओं को तो लौटाना नहीं है और ये गैस निगोड़ी --
जवाब देंहटाएंबहुत खूब
बहुत खूल लगा ये अन्दाज भी ।
जवाब देंहटाएंबाबा रे.... एक छोटी सी कविता क्या क्या भाव मन में पैदा कर जाती है........
जवाब देंहटाएंलौ लगाती दीप बाती...
जवाब देंहटाएंभाभी जी को प्रणाम।
ऐसी धुत्त परिस्थितियाँ जीवन को भूत बना देती हैं ।
जवाब देंहटाएंसबका यही हाल है भिडू :)
जवाब देंहटाएंएकदम मन से लिखी कविता है....
ऐसी कवितायें रोज रोज पढने को नहीं मिलती...इतनी भावपूर्ण कवितायें लिखने के लिए आप को बधाई...शब्द शब्द दिल में उतर गयी.
जवाब देंहटाएंऔर ब्लॉगरी करते समय नहीं धुतियाये जाते?
जवाब देंहटाएंबहुत ख़ूब!
'धुत्त' कितना सही शब्द है ! मौके की मार !
जवाब देंहटाएंनिराला अंदाज - धुत्त !
जवाब देंहटाएंवाह...बिलकुल नया अंदाज़! अच्छा लगा!
जवाब देंहटाएंधुत्त मुझे तो डाउट है कि जो द्वार पर हैं देवता ही हैं ... जाना है तो जाएँ !
जवाब देंहटाएंधुत्त जमीन से जोडे रखती है.. :)
जवाब देंहटाएंसंस्कारों की जकड़न और निसर्ग की फडकन ....सुन्दर अभिव्यक्ति !
जवाब देंहटाएंकुकर को एक झटके में कुक्कुर पढ गया !
जवाब देंहटाएंडिसलेक्सिया !!!!!!!!!! दुबारा पढ़ा तो कुछ मतलब साफ हुआ !
कविता अच्छी है !
ऐसा सर्जन करने वाला हमारे बीच है...निहाल हैं भईया हम तो !
जवाब देंहटाएंअरविन्द जी की टिप्पणी हम कर सकते हैं क्या..."संस्कारों की जकड़न और निसर्ग की फडकन ...."!
जबरदस्त !