गुरुवार, 13 मई 2010

धुत्त ! ऐसे ही।

प्रात समय
किरणें झूमें गली गली
हरसिंगार झर झर झर झर
बन्द आँखें तुलसी के बिरवा
खुले केश छू लूँ?
धुत्त !
सुनो कुकर की सीटी
..गैस धीमी कर दो।

साँझ हुई
कर्मठ बिजली बिखेरे
चाँदी सोना गली गली
आँचल ढका मस्तक
लौ लगाती दीप बाती
लाइट बुझा दूँ  ?
धुत्त !
देवता द्वार से लौट जाएँगे।

18 टिप्‍पणियां:

  1. देवताओं को तो लौटाना नहीं है और ये गैस निगोड़ी --
    बहुत खूब

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  2. बाबा रे.... एक छोटी सी कविता क्या क्या भाव मन में पैदा कर जाती है........

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  3. ऐसी धुत्त परिस्थितियाँ जीवन को भूत बना देती हैं ।

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  4. सबका यही हाल है भिडू :)

    एकदम मन से लिखी कविता है....

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  5. ऐसी कवितायें रोज रोज पढने को नहीं मिलती...इतनी भावपूर्ण कवितायें लिखने के लिए आप को बधाई...शब्द शब्द दिल में उतर गयी.

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  6. और ब्लॉगरी करते समय नहीं धुतियाये जाते?
    बहुत ख़ूब!

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  7. 'धुत्त' कितना सही शब्द है ! मौके की मार !

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  8. निराला अंदाज - धुत्त !

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  9. वाह...बिलकुल नया अंदाज़! अच्छा लगा!

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  10. धुत्त मुझे तो डाउट है कि जो द्वार पर हैं देवता ही हैं ... जाना है तो जाएँ !

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  11. संस्कारों की जकड़न और निसर्ग की फडकन ....सुन्दर अभिव्यक्ति !

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  12. कुकर को एक झटके में कुक्कुर पढ गया !
    डिसलेक्सिया !!!!!!!!!! दुबारा पढ़ा तो कुछ मतलब साफ हुआ !
    कविता अच्छी है !

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  13. ऐसा सर्जन करने वाला हमारे बीच है...निहाल हैं भईया हम तो !
    अरविन्द जी की टिप्पणी हम कर सकते हैं क्या..."संस्कारों की जकड़न और निसर्ग की फडकन ...."!

    जबरदस्त !

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