मन खिन्न हुआ और चन्द द्विपदियाँ रच गईं, प्रस्तुत हैं।
शाद कोई नहीं तमाशाई हूँ मैं
तेरी पीर से चीखूँ, भाई हूँ मैं।
क़ाफिर इस तरफ गद्दार उस तरफ
दीवार से उठती दुहाई हूँ मैं।
ढूढ़ें आलिम-ए-बहर अन्दाजे बयाँ
एक सीधी सी सच्ची रुबाई हूँ मैं।
बुतखाने न जाऊँ न कलमा पढ़ूँ
मौलवी का पड़ोसी ढिठाई हूँ मैं।
लुटी सारी ग़रीबी नंगों के हाथ
बची बस्ती की गाढ़ी कमाई हूँ मैं।
बड़े अहमकाना सूरमा-ए-महफिल
Sateek Chitran.
जवाब देंहटाएंक़ाफिर इस तरफ गद्दार उस तरफ
जवाब देंहटाएंदीवार से उठती दुहाई हूँ मैं।
बढिया...और आखरी द्विपदी तो एकदम धांसू है.....
सूरमा-ए-महफिल का हाल निराला है. धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंभाई साहब हिन्दी ब्लॉगरी का हाल हिन्दुस्तान के हाल से कहीं ज्यादा बुरा है. सैम्पल तो हिंदुस्तान से ही है तो हाल थोडा बहुत तो वैसा रहेगा ही. लेकिन ये सैम्पल युनिफोर्मली रैंडम नहीं है. चू*यापे के स्केल पे बड़ा बायस्ड है. हिन्दुस्तान में इससे कम मिलते हैं भाई. सच्ची कह रहा हूँ.
जवाब देंहटाएंbadi sundar gazal
जवाब देंहटाएंफुटबाल समझ कर लातों से मारते हैं,
जवाब देंहटाएंऔरों के पाले भेजते, भलाई हूँ मैं ।
सदा नीचा देखा,झूठ के सामने,
जवाब देंहटाएंमुझे मान था कि सच्चाई हूं मैं।
ऐसी कवितायें रोज रोज पढने को नहीं मिलती...इतनी भावपूर्ण कवितायें लिखने के लिए आप को बधाई...शब्द शब्द दिल में उतर गयी.
जवाब देंहटाएंजानदार और शानदार
जवाब देंहटाएंकविता बहुत बढ़िया लगी. अभिषेक ओझा की टिप्पणी से सहमत हूँ. हिन्दी ब्लॉग जगत में बारूदी सुरंगों का अनुपात माओवाद-कब्जाए इलाकों से भी ज़्यादा लग रहा है. एक पुरानी फिल्म का गीत, "जब हम जवान होंगे..." हिन्दी ब्लॉग की इस बचकानी अराजकता पर फिट बैठा है, "कब हम बड़े होंगे?"
जवाब देंहटाएंक़ाफिर इस तरफ गद्दार उस तरफ
जवाब देंहटाएंदीवार से उठती दुहाई हूँ मैं।
बहुत ही सटीक इशारे करती रचना...
लुटी सारी ग़रीबी नंगों के हाथ
जवाब देंहटाएंबची बस्ती की गाढ़ी कमाई हूँ मैं।
बहुत सुन्दर
Very good.......
जवाब देंहटाएंव्यथा किसी भी तरह व्यक्त तो होनी थी ...
जवाब देंहटाएंअच्छा चिंतन ...!!
ब्लागरी तो केवल बहाना है कविता को तो ऐसे ही आना है ....सशक्त गिरिजेश टाईप रचना !
जवाब देंहटाएंThere is no need to be disappointed this much. Its just a phase. In my humble opinion you all should not write anything against Hindi blogging, because whatever you are writing today will become history someday and will be read by coming generation , which will not leave a good`impact on them.
जवाब देंहटाएंBut yes the poem is beautifully expressing the pain in poet's heart.
Nice creation !
बिल्कुल सही ।
जवाब देंहटाएंलुटी सारी ग़रीबी नंगों के हाथ
जवाब देंहटाएंबची बस्ती की गाढ़ी कमाई हूँ मैं।
बहुत खूबसूरत ग़ज़ल...
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंबहुत गज़ब लिखा है ....लाजवाब ....इसकी तारीफ़ के लिए मेरे पास अल्फाज कम है ....बस इतना कहूँगा की ऐसा ब्लॉगजगत में पढ़ने को कम ही मिलता है ....मान गए ....आपको नमन
जवाब देंहटाएंएक बहुत ही बेहतरीन बात कही आपने।
जवाब देंहटाएंएक द्विपदी मेरी भी जोड़ लें
जवाब देंहटाएंछीछालेदर हुई ‘मोती’या‘मौज’ की
फ़र्क क्या इक अनामी लिखाई हूँ मैं।
आपकी कविता में आपके मन का हस्ताक्षर स्पष्ट दृष्टिगत है...
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर ...