जो दूसरों की हैं, कवितायें हैं। जो मेरी हैं, -वितायें हैं, '-' रिक्ति में 'स' लगे, 'क' लगे, कुछ और लगे या रिक्त ही रहे; चिन्ता नहीं। ... प्रवाह को शब्द भर दे देता हूँ।
बुधवार, 24 मार्च 2010
मंगलवार, 23 मार्च 2010
(१)तुम्हारी हत्या पर भी रख लेंगे २ मिनट का मौन,(२)भारतीय की जान की कीमत(३)बातचीत रहेगी जारी
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अच्छा!!! वो दुश्मन है? बम फोड़ता है? गोली मारता है?
मगर सुन - दोस्ती में - इतना तो सहना ही पड़ता है
तय है - जरुर खोलेंगे एक और खिड़की - उसकी ख़ातिर
मगर - हम नाराज़ हैं - तेरे लिए इतना तो कहना ही पड़ता है
तुम भी तो बड़े जिद्दी हो - दुश्मन भी बेचारा क्या करे
इतने बम फोड़े - शर्म करो - तुम लोग सिर्फ दो सौ ही मरे ? (कितने बेशर्म हो तुम लोग)
चलो ठीक है - इतने कम से भी - उसका हौंसला तो बढ़ता है
और फिर - तुम भी तो आखिर १०० करोड़ हो(*) - क्या फर्क पड़ता है?
[(*) ११५ करोड़ में १५ करोड़ तो विदेशी घुसपैठिये हमने ही तो अन्दर घुसाएँ हैं वोटों के लिए]
अच्छा! समझौते की गाड़ियों में दुश्मन भी आ जाते हैं???
क्या हुआ जो दिल लग गया यहाँ - और यहीं बस जाते हैं
बेचारे - ये तो वहां का गुस्सा है - जो यहाँ पर उतारते हैं
वहां पैदा होने के पश्चाताप में - यहाँ पर तुम्हें मारते हैं (क्यों न मारें?)
क्या सोचता है तू ? मरना था जिनको - वो तो गए मर
तू तो जिन्दा है ना - तो चल - अब मरने तक हमारे लिए काम कर
और क्या औकात थी उन मरने वालों की ? सिर्फ २०० रुपये मासिक कर (*१)
हम क्या शोक करें - क्यों शोक करें अब - ऐसे वैसों की मौत पर ?
अच्छा! आतंकवादी तुम्हें लूटता है? मारता है? मजहब के नाम पर ?
पर आतंकवादी का तो कोई मजहब ही नहीं होता - कुछ तो समझा कर (बेवकूफ कहीं के)
तू सहिष्णु है - भारत सहिष्णु है - यह भूल मत - निरंतर याद कर
क्या कहा? आत्मरक्षार्थ प्रतिरोध का अधिकार? - बंद यह बकवास कर (अबे,वोट बैंक लुटवायेगा क्या)
इन बेकार की बातों में - न अपना कीमती वक्त बरबाद कर
भूल जा - कुछ नहीं हुआ - जा काम पर जा - काम कर
तेरे गुस्से की तलवार को - हमारी शांति की म्यान में रख
हमने दे दिया है ना कड़ा बयान - ध्यान में रख
जानते हैं हम - इस बयान पर - वो ना देगा कान
चिंता ना कर - तैयार है - एक इस से भी कड़ा बयान
दे रक्खा है उसे - सबसे प्यारे देश का दरजा (*२)
चुकाना तो पड़ेगा ना - इस प्यार का करजा
दुनिया भर से - कर दी है शिकायत - कि वो मारता है
दुनिया को फुरसत मिले - तब तक तू यूँ ही मर जा
किस को पड़ी है कि - कौन मरा - और मार गया कौन
आराम से मर - तेरे लिए भी रख लेंगे - २ मिनट का मौन
*1 : Profession Tax Rs.200/-per month
*2 : Most Favoured Nation
रचयिता : धर्मेश शर्मा
संशोधन, संपादन : आनंद जी. शर्मा------------------------------
(बाल-बुद्धि भारतियों पर कवि का कटाक्ष)
अरे - समझौता गाड़ी की मौतों पर - क्या आंसू बहाना था
उनको तो - पाकिस्तान नाम के जहन्नुम में ही - जाना था
मरने ही जा रहे थे - लाहौर, करांची - या पेशावर में मरते
और उनके मरने पर - ये नेता - हमारा पैसा तो ना खर्च करते
और तुम - भारतियों, टट्पुंजियों - कहते हो हैं हम हिंदुस्थानी
जब हिसाब किया - तो निकला तुम्हारा ख़ून - बिलकुल पानी
औकात की ना बात करो - दुनिया में तुम्हारी औकात है क्या - खाक
वो समझौता में मरे तो १० लाख - तुम मुंबई में मरो तो सिर्फ ५ लाख
तुम से तो वो अनपढ़, जाहिल, इंसानियत के दुश्मन, ही अच्छे
देखो कैसे बन बैठे हैं - बिके हुए सिक यू लायर मीडिया के प्यारे बच्चे
उनके वहां मिलिटरी है - इसलिए - यहाँ आ के वोट दे जाते हैं
डेमोक्रेसी के झूठे खेल में - तुम पर ऐसे भारी पड़ जाते हैं
जाग जा - अब तो जाग जा ऐ भारत - अब ऐसे क्यूँ सोता है
वो मार दें - और तू मर जाये - लगता ऐसा ये "समझौता" है
प्रियजनों की मौत पर - फूट फूट रोवोगे - वोट नहीं क्या अब भी दोगे
लानत है - ख़ून ना खौले जिस समाज का - वो सज़ा सदा ऐसी ही भोगे
पांच साल में - आधा घंटा तो - वोट के लिए निकाला कर
विदेशियों के वोटों से जीतने वालों का तो मुंह काला कर
सब चोर लगें - तो उसमे से - तू अपने चोर का साथ दे दे
अपना तो अपना ही होता है - परायों को तू मात दे दे
बुद्धिमान है तू - अब अपनी बुद्धि से काम लिया कर
वोट दे कर अपनों को - वन्दे मातरम का उद्घोष कर
आक्रमणकारियों के दलालों का राज - समूल समाप्त कर
ऐ भारत - तू उठ खड़ा हो - निद्रा, तन्द्रा को त्याग कर
अपने भारतीय होने पर - दृढ़ता से अभिमान कर
कुछ तो कर - कुछ तो कर - अरे अब तो कुछ कर
रचयिता : धर्मेश शर्मा
संशोधन, संपादन : आनंद जी. शर्मा
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रचयिता : धर्मेश शर्मा
मुंबई / दिनांक २०.०९.२००९ संशोधन, संपादन : आनंद जी. शर्मा
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एक आम भारतीय की पीड़ा अपनी संवेदना में मिला कर आप तक पँहुचाने का प्रयास है l जब तक हम सब लोग आपसी क्षुद्र भेदभाव भुला कर अपनी मातृभूमि भारत की रक्षा के प्रति एकमत नहीं होंगे तब तक ऐसे ही आक्रमण होते रहेंगे और हम लोग ऐसे ही अरण्य-रोदन करते रहेंगे l
मातृभूमि भारत के प्रति देशभक्ति की भावना या रचना पर एकाधिकार अथवा नियंत्रण अवांछित है l प्रत्येक देशभक्त भारतीय अपनी अपनी भाषा में अनुवाद कर के प्रसारित करे l यद्दपि किसी भी प्रकार का "Copy Right" नहीं है - सब कुछ "Copy Left" है; तदापि पाठकगण से नम्र निवेदन है कि अपने मित्रों को प्रसारित (फारवर्ड) करते समय अथवा अपने ब्लॉग पर डालते समय रचनाकार को एक ईमेल द्वारा सूचित कर के अथवा एक लिंक दे कर प्रोत्साहन दें l हमारा मानना है कि - Criticism is Catalyst to Creativity या फिर यूँ समझ लीजिये कि - निंदक नियरे रखिये आंगन कुटी छवाय...... l आपकी सृजनात्मक आलोचना शिरोधार्य होगी - संकोच न करें l
देशभक्तिपूर्ण कविता आपको पसंद आयी तो अवश्य प्रसारित करें अथवा - क्योंकि :
आनंद जी. शर्मा
ई मेल : anandgsharma@gmail.c
रविवार, 21 मार्च 2010
डरो नहीं
मृत्यु के बाद भी।
बिछड़ने के बाद भी।
तारे के उल्का हो जाने के बाद भी।
चाँद तारों के पार प्रेम जीवित रहेगा -
मैं मैं न रहूँगा
वह वह न रहेगी।
..बहुत दिनों बाद जब याद करेंगे
प्रेम फैलेगा मुलायम चाँदनी बन
याद को आकार देते हुए -
अँधेरे में आकार कहाँ होते हैं?
शनिवार, 20 मार्च 2010
पुरानी डायरी से - 18: अधूरी कविता
बेला है भोर की ।
चंचल मन्द अनिल नहीं ऊष्ण
कमी है शोर की।
अपूर्ण चाँद ऐसा लगता
अन्धकार को दूर करने हेतु
जैसे जला दिया हो प्रकृति ने
एक शांत दिया।
श्वेत बादल ऐसे चलते
इस दीप के उपर से
जैसे हों इस दीप से निकले
पटलित धूम।
इक्के दुक्के तारे निकलते
इनके बीच से
जैसे खेल रहे हों बच्चे
आँखमिचौनी गरीब के।
देह पीरे पी रे।
देह पीरे पीर रे
नाच रही पीरे पी रे
चन्दन पलंग रात न सोहे
नेह बिछौना अंग न तोरे
निदियाँ नाहीं पीर रे।
नाच रही मैं पीर रे।
सास की बरजन ससुरा गरजन
बाज रहे पायल में झम झम
माती अँखियन नीर रे
रटती पी रे तू पी रे
चकित चौबारे पीर रे
मैं नाच रही पीर रे
देह पीरे पी रे।
अब आओ जू राह तकूँ मैं
सुनती तोरे बैलन की घाँटी
आज सजी सिंगारन खाँटी
अँगना चौखट लाँघ सकूँ मैं
कब उजरूँ तोरे हाथ के तारन
नाच रही पीरे पी रे।
नेह पगी पीर रे।
देह पीरे पी रे।
बुधवार, 17 मार्च 2010
सापेक्ष दौर
रविवार, 14 मार्च 2010
मुंडेर पर अब कोई कबूतर नहीं
बन्द कर दिया लेटर बॉक्स का द्वार
तोड़ डाले सब मोबाइल,
मिटा दिए सब ई मेल पते...
ठहरे आँसू
टपके आज
तुम्हारे जाने के बाद ...
बहुत दिनों के बाद।
बरसे आँसू
बहुत दिनों के बाद
मुंडेर धुली
बहुत दिनों के बाद।
शुक्रवार, 12 मार्च 2010
.. ना
शुभ्र वसना !
शब्दों में रंग ना
कैसे उतारूँ चित्र सना
तुम्हारा अंग ना -
कोरा सजना
सज ना !
चंचल आँख ना
पलक कालिमा घना
सना
नेह यूँ आखना
मैं ताकता, ताक ना
शुभ्र वसना
सज ना !
रक्त अधर गुनगुना
गीत गुनगुना
शीत, गुनगुना
काँप चुप ना
गुनगुना
शुभ्र वसना
सज ना !
(2)
छोकरे तू गा ना गाना घनघन घना रुनझुना गीत तोड़ हर रीत बस प्रीत सना घनघन घना छोकरे नाच उठे हवा हवा हर अंग बजे झुनझुना केश फहरें भर भर लहरें उठान उठ्ठे और हो जाऊँ दिव्यांगना अंगना मचल छोकरे घनघन घना बाज ना सुर तोड़ यूँ साज ना सफल सजना जब दीठ चोर चोर ताक ना जग जाय सुरसुर कामना छोकरे तू साजना साज ना।
गाँव बड़ा उदास हुआ
गाँव बड़ा उदास हुआ।
शहर के भीतर
था एक शहर,
एक और शहर, एक और शहर ...
वैसे ही जैसे गाँव भीतर
टोले और घर ?
गँवार के भीतर भी
होते हैं कई गँवार
लेकिन गाँव उन्हें जानता है।
उनकी एक एक मुस्कान
उनकी हर गढ़ान
हर हरकत
सब जानता है -
शहरी के अन्दर
होते हैं कई शहरी -
शहर की छोड़ो
कोई शहरी तक इस बात को नहीं जानता !
या जानते हुए भी नहीं ध्यानता ?
शहर के इस अपरिचय से
गाँव हैरान हुआ
दु:खी हुआ ..
गठरी उठाई
पकड़ी चौराहे से एक राह
कि हवलदार ने गाली दी -
" समझते नहीं मुँह उठाए चल दिए
बड़े गँवार हो !"
शहर के इस परिचय से
गाँव उदास हुआ ...
.. छोड़ चल पड़ा
वापस आने के लिए-
अपरिचित परिचय
परिचित अपरिचय
से
फिर उदास होने के लिए ..
मंगलवार, 9 मार्च 2010
पुरानी डायरी से - एक अंग्रेजी कविता और अनुवाद, I shall die
रविवार, 7 मार्च 2010
मैं कैसे शुरू करूँ ?
गाली
मैं बोला
तुमने देखा
मैंने देखा
तुम चले भी
तो मैं दौड़ा -
पता नहीं
जाने कब
तुम सोचने लगे
कि मैं हूँ ही नहीं।
उस दिन जब तुमने
रेत में सिर छिपाया था
मैंने भी सिर झुकाया था
रेत की ओर तुम्हारे साथ।
जाने क्यों
जो देखा था
वह चुभने सा लगा था आँखों में
तुम सिर गाड़े पड़े रहे
और मैं
आँख फाड़े
निकालता रहा
रेत के कण - कण दर कण
.. जो अन्धेरा सामने था
और उजला होता गया
क्षण दर क्षण ..
अन्धेरा तुम्हारे साथ था
रेत में आँख जो मूँदे थे
अन्धेरा मेरे साथ था
आँख जो खोले था मैं ...
अब जब कि तुम
रेत में सिर गाड़े
अपने पैरों को पटक
यह जता रहे हो
कि मैं वंचक हूँ ..
ठीक उसी समय
मैं चिल्ला रहा हूँ ...
"देखते रहो
अन्धेरा घना है"
तुम खोज रहे हो
अपने मन-शब्दकोष में
मेरे योग्य कोई
सुसंस्कृत परिष्कृत
जटिल अबूझ सी -
गाली।
शनिवार, 6 मार्च 2010
पाखी ! न बोल।
सोमवार, 1 मार्च 2010
आज रंग है !
अनंग संग भंग है
आज रंग है।
राति नींद नहिं आइ गोरि
सपन साँवरे भर भर अँकवारि
आज रंग है।
चहका मन चमक चम
चौताल ताल नाचे तन
साजन बुढ़ाय पर
जवान जबर देवर देख
धधका बदन मदन संग
मचा जोबन सरर जंग
हुइ चोली जो तंग है
आज रंग है।
बौराया आम ढींठ हुआ
बयार के झँकोर बहाने
घेर गया नेह गन्ध ।
पड़ोसी की साँस सूँघ
तीत नीम मीठ हुई
फगुआ का संग है!
आज रंग है।
जाने कितने बरस बीते
मितऊ से बात किए ।
चढ़ाय लियो भाँग आज
कह देंगे दिल के राज
खींच लाएँगे आँगन बार
मिट जाँयगे बिघन खार-
लगाना तंगी को तंग है
आज रंग है।