तुम जो आज आई हो
इस घर की देहरी लाँघ
वह देहरी जो ऊँची थी, बहुत ऊँची,
हमारे प्रेम से भी –
आज तुम्हारे स्वागत में झुकी है
ऐसी कि सगुन साटिका से अनुशासित
तुम्हारे रुन झुन कदम भी उसे लाँघने में सक्षम हैं।
तुम्हारा स्वागत मैं कैसे करूँ?
कलंकिनी नहीं तुम अब, लक्ष्मी हो
जिसके संतति धन से
परम्परा के ब्याज चुकाए जाएँगे
और मूल मन में रह जाएँगे
चमकते सिक्कों से कुछ ऐसे धन –
छिप कर मिलना
हताश होना
साथ साथ मरने की कसमें
पिताओं के क्रोध
माताओं की घृणाएँ
ममता की बलाएँ
जमाने की थू थू।
अब जब कि धन धन में
सब धन्य हैं
तुम्हारे ऊपर कौन धन वारूँ?
तुम्हारा स्वागत मैं कैसे करूँ?
तुम्हारे कदम जमीन पर न पड़ें
इसलिए माँ ने डलियाँ बिछाई हैं
दस्तूर नहीं, सचमुच हरसाई हैं।
मुक्त चलो मेरी प्रियतम!
भू से आँसुओं की कीच अब सूख चुकी है
हम मिल गए हैं
और कोई अनर्थ नहीं हुआ!
नक्षत्र वही हैं
सुबह शाम वैसी ही होती हैं
बच्चे अब भी स्कूल जा रहे हैं
दो और तीन अभी भी पाँच हैं
सूरज चाँद अभी भी चमकते हैं
और
चाँदनी सुहाग कक्ष की छत को भी नहलाएगी
ठीक वैसे ही जैसे पापी आलिंगन को नहलाती थी।
तो बताओ
इस संस्कार स्नान के बाद
तुम्हारा स्वागत मैं कैसे करूँ? (जारी)
चित्राभार: http://media.photobucket.com