सोमवार, 31 मई 2010

केवल कष्ट है।

बस वही है

वहीं है जीवन

जो

जहाँ

मित्रों के साथ बतिया लिए हँस लिए

किसी सुन्दर शरीर को जी भर सराह लिए

सड़क पर चलते किसी से छिप कर 'रेस' लगा लिए

किसी पत्थर को ले हाथ यूँ ही गड्ढे में उछाल दिए

आँख में चुभती धूल को बिसरा नभ निहार लिए

किसी बच्चे को दुलरा दिए -

बाकी सब अंट शंट है

भ्रष्ट है

सबको चीरता

केवल कष्ट है ।


रविवार, 23 मई 2010

नए जमाने में पुरानी सोच वाले गुरु और शिष्य के संवाद का एक लघु अंश

आज आभासी संसार और वास्तविक वातावरण में टहलते हुए दो नए जन मिले। देखने से गुरु शिष्य लगते थे। विपरीत दिशाओं से आते हुए जब हम लोग पास हुए तो उनकी बातचीत के कुछ अंश कानों में पड़े। अच्छे लगे , सोचा आप सबको भी बता दूँ। उनके पीछे पीछे नहीं जा पाया। उनकी निजता का उल्लंघन होता। हालाँकि उनकी बातचीत में निज जैसा कुछ भी नहीं था फिर भी ...

"...बड़े शहरों की ज़िन्दगी अब 'सीने में जलन आँखों में तूफान सा क्यूँ है' की बिडम्बना से आगे वहाँ पहुँच चुकी है जहाँ जलन और तूफान स्वीकृत हो चले हैं। मन में सवाल तक नहीं उठते । एक अज़ीब तरह की झुँझलाहट है जो नकार नहीं पाती क्यों कि नकार के साथ ही विडम्बना और रोटी से जुड़ी समस्याएँ इतनी बड़ी दिखने लगती हैं कि सिट्टी पिट्टी गुम हो जाती है। 
दोस्त हैं लेकिन सतर्क से। विमर्श के और समागम के विषय या बहाने परिवेश से बाहर वालों के लिए कौतुहलकारी नहीं भयकारी हैं। 'गोली मार भेजे में ..' का बेलौसपना भी नहीं, अजीब सी बँधी जिन्दगी है, सिमटी हुई सी, औपचारिक सी। कहने के लिए भी दोस्त गले नहीं लगते ...दिखावे तक की हैसियत आधुनिक(ता) पहनावे [लगता है सुनने में भूल हुई :)] सी हो गई है - यूज एण्ड थ्रो ... 
ऐसे में कविता ? क्षमा करें आर्य ! 'भोग' दु:ख देता है। इस दु:ख से 'मुझसे पहली सी मुहब्बत ' जैसी नज़्में नहीं निकलतीं।"

"वत्स! तुम्हारी सोच सीमित है। दु:ख दु:ख ही होता है। उसमें प्रकार नहीं आकार होते हैं। उन आकारों को वाणी दो, काव्य स्वत: उतरेगा। क्रौञ्च वध शाश्वत है और अनुष्टप भी शाश्वत हैं।"

शनिवार, 22 मई 2010

चुपचाप रहता न मुस्कुराता हूँ मैं
पड़ोसी को देख 
उसी की तरह 
अजनबी हो जाता हूँ मैं।
न कहता कुछ भी 
दिल में सब रखता 
दोस्तों को गले लगाता हूँ मैं । 
अपने काम से काम 
एक शहरी का फर्ज़ 
निभाता हूँ मैं। 
डिनर के बाद 
दो ह्विस्की के पैग
लगाता हूँ मैं। 
फिर भी जाने क्यों 
सोते सोते रातों में 
यूँ ही जाग जाता हूँ मैं।  
जाने कैसा है ये फर्ज़ 
न जानूँ फिर भी
निभाता हूँ मैं
यूँ ही जाग जाता हूँ मैं।

शुक्रवार, 21 मई 2010

कविता नहीं - प्रलय प्रतीति

बरसी थी चाँदनी
जिस दिन तुमने लिया था
मेरा - प्रथम चुम्बन।
बहुत बरसे मेह
टूट गए सारे मेड़
बह गईं फसलें
कोहराम मचा
घर घर गली गली
प्रलय की प्रतीति हुई।
बेफिकर हम मिले पुन:
भोर की चाँदनी में
मैंने छुआ था तुम्हें
पहली बार
(चुम्बन में तो तुमने छुआ था मुझे !)
पहली बार तुम लजायी थी
घटा घिर आई थी
उमड़ चली उमस
खुल गए द्वार द्वार
मचा शोर
चोर चोर
तुमने लुटाई थी
बरसों की थाती
मैंने नहीं चुराई थी।
 ...
इतने वर्षों के बाद
आज भी  आसमान में घटाएँ हैं
लेकिन कहीं कोई कोहराम नहीं
कहीं कोई शोर नहीं
जब कि पार्क में
बैठा है युगल
मुँह में मुँह जोड़े।
न होता उस दिन
अपराध बोध
तो आज हम अगल बगल खड़े
कर रहे होते विमर्श
तुम्हारी कमर के दर्द पर
मेरे घुटनों की सूजन पर ।
कहीं तुम भी किसी जगह
सोचती होगी यही
अब कोई मेघदूत नहीं
जो सन्देश लिए दिए जाँय।
अब उमर भी कहाँ रही ?
घर की छत न टपके
मरम्मत के लिए
राजगीर आया है
भीतर से फरमान आया है:
नीचे आओ
नज़र सेंकनी बन्द करो
कल तूफान आएगा
टीवी ने बताया है।
...
मैंने सारी उमर
प्रलय गीत गाया है
कैसे थे सुर उस दिन !
जब  प्रलय प्रतीति हुई थी?

बुधवार, 19 मई 2010

युगनद्ध - 4

तुम्हारी याद में गुलाब रोपे थे 
फूलों की जगह बस काँटे खिले 
हवा लाल नहीं 
जमीन सन गई है 
लाल लाल 
अपना रोपा उखाड़ने चला था।

हरियाली से ललाई टपक जाती है 
जी के फाँस ग़र हिलाता हूँ
.. तुम अब भी घाव हरे कर सकती हो। 


मैं कितना अद्भुत प्रेमी हूँ  
हरियाली में ढूढ़ता हूँ
अब भी वह लाली
जब सूरज लजाया था -
सुबह सुबह पहली बार 
हम जो युगनद्ध हुए थे ।

शनिवार, 15 मई 2010

बेहयाई हूँ मैं।

हिन्दी ब्लॉगरी का वही हाल है जो हिन्दुस्तान का है।
मन खिन्न हुआ और चन्द द्विपदियाँ रच गईं, प्रस्तुत हैं। 


शाद कोई नहीं तमाशाई हूँ मैं 
तेरी पीर से चीखूँ, भाई हूँ मैं।

क़ाफिर इस तरफ गद्दार उस तरफ  
दीवार से उठती दुहाई हूँ मैं।


ढूढ़ें आलिम-ए-बहर अन्दाजे बयाँ 
एक सीधी सी सच्ची रुबाई हूँ मैं। 


बुतखाने न जाऊँ न कलमा पढ़ूँ 
मौलवी का पड़ोसी ढिठाई हूँ मैं। 


लुटी सारी ग़रीबी नंगों के हाथ 
बची बस्ती की गाढ़ी कमाई हूँ मैं। 


बड़े अहमकाना सूरमा-ए-महफिल 
मुझको आए हँसी बेहयाई हूँ मैं। 

गुरुवार, 13 मई 2010

धुत्त ! ऐसे ही।

प्रात समय
किरणें झूमें गली गली
हरसिंगार झर झर झर झर
बन्द आँखें तुलसी के बिरवा
खुले केश छू लूँ?
धुत्त !
सुनो कुकर की सीटी
..गैस धीमी कर दो।

साँझ हुई
कर्मठ बिजली बिखेरे
चाँदी सोना गली गली
आँचल ढका मस्तक
लौ लगाती दीप बाती
लाइट बुझा दूँ  ?
धुत्त !
देवता द्वार से लौट जाएँगे।

शनिवार, 8 मई 2010

रैना दी ने ठोंक सुलाया ।

बारिश अम्मा ने नहलाया
दिन हुआ दिगम्बर धुला धुला
जागे लोगों के कपड़े पहने
 सूरज संग स्कूल चला।

हँसी ठिठोली बाँह मरोड़ी
आसमान सूरज चढ़ धाया
कुट्टी कर ली दिन गुस्साया
छाँह किताबें पटक चला।

सूरज झाँके दिन भी ताके
हवा लाल के बँटे बतासे
भर भर पेट दिन ने खाया
हँसा, सूरज को कुढ़ता पाया।

ढली दुपहरी सूरज उतरा
पेंड़ फुनगियाँ फलती अमियाँ  
यारी जुड़ गइ कुट्टी तोड़ी
दोनों ने जब खट्टी पाया।

थके पाँव कपड़े हैं मैले
छाँह किताबें लाद आ गए
संझा दादी की झिड़क सुनी
रैना दी ने ठोंक सुलाया ।   

बुधवार, 5 मई 2010

एक मित्र के जन्मदिन पर . .

एक कदम और..
जीवन सौन्दर्य में भ्रमण को।

एक कदम और
गुदगुदाहट, किसी भोले इंसान की निश्छ्ल हँसी सा।
एक कदम और
संगिनी के साथ सुबह की टहल सा
एक कदम और
बच्चों के साथ स्कूल की बस तक
एक कदम और
लंच में बाहर धूप में गुनगुने होने सा
दोस्तों के साथ हँसी ठठ्ठा सा।
 
ज़िन्दगी जाने कितने कदम सँजोए है !
एक कदम और चल लें - उमंग और उत्साह के साथ?
आज एक विशेष कदम लें - पहली बार सा
चलो जन्मदिन मनाते हैं।

मंगलवार, 4 मई 2010

एक प्रश्न

आज कल एक प्रश्न बहुत सता रहा है - पुरुष शरीर पर उतनी कविताएँ क्यों नही हैं जितनी नारी शरीर पर ? 
तुलसी टाइप नहीं ..ऐसी जो 
बबूल के काँटों का राग रचें, 
बाहु मांसपेशियों में मचलती मछलियों की रवानी के छ्न्द गढें,
मुक्त अट्टाहस में गूँजते प्रलय रव को सुनें सुनाएँ,
वक्ष की रोमावलियों पर कोमलता को सँभालती रुक्षता को पखावज नाद दें
 .. क्यों नहीं हैं? 


मैं पुरुष शरीर पर ऐसा कुछ रचना चाहता हूँ:
शत घूर्णावर्त तरंग भंग उठते पहाड़ 
जल राशि राशि पर चढ़ता खाता पछाड़ 
तोड़ता बन्ध प्रतिसंध धरा हो स्फीत वक्ष 
दिग्विजय अर्थ प्रतिपल समर्थ बढ़ता समक्ष  (निराला, राम की शक्ति पूजा) 


जाने कब हो पाएगा ?
दिनकर ! तुम्हारी उर्वशी के छ्न्द कब इस आकाश में उतरेंगे?
 

शनिवार, 1 मई 2010

मैं मज़दूर नहीं ...

पसीना पहचान है
कि सब कुछ ठीक ठाक है ।
खून बह रहा है
शरीर में धातुएँ पुष्ट हो रही हैं ।
निकलता है तो होता है निर्गन्ध
टूट पड़ते हैं बैक्टीरिया, जीवाणु, वायरस
और कुछ ही देर में
गन्धाने लगता है - पसीना।
सुबह नहा धो
डियो इत्र लगा
पहुँचता हूँ ऑफिस
एसी कार से,
भाग कर घुसता हूँ एसी ऑफिस में
रूम फ्रेशनर और डियो
सुगन्ध ही सुगन्ध
संतोष होता है दुर्गन्ध नहीं
पसीना नहीं ।
पसीना मज़दूरियत को जाहिर न कर दे !
भयमुक्त  रहता हूँ सुबह सुबह।
दिन चढ़ता है -
बाहर कुछ भी तापमान हो
भीतर स्थायी तापमान 20डिग्री
- ऑपरेटर !18 रखा करो
जी साब ।
बाहर धूप में
सड़क पर, बस में, छाँव में - सर्वत्र
घन मार, जोर लगा, उइ दैया !
सखी जोर लगाओ !
टेढा है, सीधा करो !
अरे भाई हाथ लगाओ, एक से नहीं होगा।
पसीना ही पसीना
बह रहा है -
मेरा सीना - नो पसीना
विशिष्टता का सुख
शिष्टता का सुख -
दूर कहीं काम रुक गया है
हायर अप्स की विजिट है -
पेशानी पर बूँदें छलक आई हैं
तापमान 18 डिग्री ही है -
...आइ वांट रिजल्ट डियर !
ये बहानेबाजी किसी और को सुनाओ ...
साब ! गाड़ी नाके पर पकड़ी गई
आज डिलेवरी नहीं हो पाएगी -
स्टॉप दिस नानसेंस ! नैंसी !
भीतर पसीना ही पसीना
तापमान 18 डिग्री
बैक्टीरिया काम पर लग गए हैं -
बगलों से भयानक दुर्गन्ध ...
नैंसी कौन सा परफ्यूम लगाती है ?
..ओन्ली वन डे मिस्टर
टुमारो कट ...
ऑफिस का वक्त खत्म हो गया
बाहर निकलता हूँ
दुर्गन्ध ही दुर्गन्ध
मज़दूर ही मज़दूर -
पसीने के बहाव घरों को जा रहे हैं
एसी कार, बस, पैदल सब बराबर
पसीना सब को बराबर कर देता है
दुर्गन्ध ज़िन्दगी का सबूत है
..साबुन में बसे मृत फूलों की गन्ध
शरीर पर रगड़ रहा हूँ -
मुझे दुर्गन्ध बर्दाश्त नहीं
मैं मज़दूर नहीं ...