शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

पौधे, भोर, पीत प्रकाश, ध्वनि, उड़ते कपूर, लौ अर्पित - कविता? नहीं।

(1) 
बैठा हूँ युवा होते 
पौधों के बीच 
अकेला 
तीखे पीत प्रकाश में।  
झुटपुट भोर चारो ओर 
आए हैं याद वो अन्धेरे 
जब थे तुम्हारी ध्वनियों के उजाले। 
तुम गयी नहीं 
ग़ुम हो गई मेरे भीतर कहीं 
फिर भी तुम्हें आज ढूढ़ रहा हूँ
कहाँ हो? 
कपूर उड़ रहा है 

(2)

ओस नहायी दूब 
नंगे पैर चलते 
नमी का अनुभव किया है 
कैसे लिखूँ ? 
उन आँखों की 
जो डबडबाई हैं।

(3)
धूप से भागते
स्वयं को सूँघा है- 
तुम हो कपूर गन्ध 
धूप में 
मुझमें 
किससे भागना? 
कहाँ भागना? 
थम गया हूँ| 

मन्दिर में घंटा ध्वनि! 
चलूँ 
उड़ते कपूर कण
कर दूँ देव अर्पित 
...
इससे पहले कि वे जल उठें 
तीर तीर। 
    

16 टिप्‍पणियां:

  1. पीर पीर के बाद अब तीर -तीर ....बढ़िया है ...:):)
    कपूर सी बसी है यादें या कोई खुद ...
    सुबह-सुबह ऐसी कवितायेँ पढना ...जैसे सुबह की ताज़ी हवा ...!

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  2. जीवन में घटनायें कर्पूर की तरह महक फैलाती हैं, उड़ जाती हैं, जल जाती हैं। पुनः सब वैसा ही।

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  3. @ कपूर उड़ रहा है
    लौ लगा दो न!
    ..कपूर से या कपूर को ?

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  4. खूब रखते हैं ऐसे अहसास !
    कविता में भी उतर आते हैं सहज ही‌!
    खूबसूरत !‌

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  5. ग़ुम हो गई मेरे भीतर कहीं
    फिर भी तुम्हें आज ढूढ़ रहा हूँ
    कहाँ हो?
    कपूर उड़ रहा है
    लौ लगा दो न!


    ahaa...

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  6. हिमांशु ! आप तो निशब्द कर देते हो आपको पढ़ने के बाद कहने को कुछ सूझता ही नहीं !

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  7. ओह! गिरिजेश जी, तो यह आपकी पोस्ट है ..फिर तो वाकई कमाल हो गया! ... इतना मस्त कर दिया इस रचना नें कि कुछ ख्याल ही न रहा .. वैसे कविता की दुनिया में क्षमा जैसे शब्दों का प्रचलन नहीं होना चाहिए फिर भी इस लापरवाही के लिए क्षमा मांगता हूँ

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  8. अकेलेपंन की घनी पीर कैसे सुन्दर शब्दों में व्यक्त हुई है..

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  9. इन कविताओं में एक बात उल्लेखनीय है कि कपूर के बिम्ब का आपने बेहद खूबसूरती से अलग अलग प्रयोग किया है । "कपूर उड़ रहा है " तक का प्रयोग तो बहुत देखा है लेकिन " लौ लगा दो न " यह श्लेष इसे एक नया अर्थ देता है । उसी तरह धूप का प्रयोग भी अनेक अर्थ देता है । इस कविता को महसूस किया जा सकता है ।

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  10. गुम हो गयी हो मेरे भीतर कहीं
    फिर भी ढूँढ रहा हूँ
    कहाँ हो तुम
    कपूर उड रहा है
    लौ लगा दो न्!
    दिल को छू गयी रचना। शुभकामनायें

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  11. वहाँ गया , प्रेम-पत्र दिखा ! भाग आया | फिर इस कविता के ब्लॉग पर आ गया | इहाँ 'कपूर' का खेल देख रहा हूँ ! पूर पूर ! कोकास जी लौ का श्लेष बता ही चुके ! वाकही बात ठह गयी है | ओस , नमी , कपूर और तीर ! सब एक से बढ़कर एक ! लिंक के फिर समझावक-भाष्य देख आया ! आभार !

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  12. कपूर उड़ रहा है
    लौ लगा दो न
    .....
    असहाय कपूर / सुन्दर याचना

    कपूर में आग का वास
    उसे भी..लौ की आस

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