गुरुवार, 30 सितंबर 2010

क्या कोई सुनेगा?

धर्मवीर भारती कृत 'अन्धा युग' की अंतिम पंक्तियाँ आज याद आईं। व्याध के हाथों घायल मरते हुए कृष्ण की यह वाणी है:
- उस कृष्ण की जो महाभारत के बाद भी उसकी परिणति से असंतुष्ट थे और उसके बाद पुन: विराट ध्वंश के कर्त्ता और साक्षी हुए। 
- व्यास जैसे ज्ञानी की जिनकी हताशा व्यक्त हुई - मैं हाथ उठा उठा कर कहता हूँ, क्या कोई सुनेगा? 
कलिकाल रूपी अन्धे युग का प्रारम्भ उस व्यक्ति की मृत्यु से होता है जिसे उसके जीवनकाल में ही ईश्वर मान लिया गया था। 
 लेकिन इस अन्धे युग में भी कृति अंत में आशा के स्वर बिखेरती है। 
मेरे मन में प्रश्न उठ रहे हैं। मज़हबी हठधर्मिता के कारण आज सम्पूर्ण मानव सभ्यता संकट में है। आखिर क्या कारण हैं जो सुसोच घुटने टेकती है? क्यों टेकती है? क्यों सभ्यता के नासूर बन कर घालमेल घाव मनुष्य को हमेशा से पीड़ित करते रहे हैं? क्या कारण हैं? 
छोड़िए मेरी। मैं ऐसा ही हूँ। आप यह अंश पढ़िए और विचारिए।      
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"मरण नहीं है ओ व्याध! 
मात्र रूपांतर है वह
सबका दायित्त्व लिया है मैंने अपने ऊपर
अपना दायित्त्व सौंप जाता हूँ मैं सबको
अब तक मानव-भविष्य को मैं जिलाता था
लेकिन इस अन्धे युग में मेरा एक अंश 
निष्क्रिय रहेगा, आत्मघाती रहेगा
और विगलित रहेगा
संजय, युयुत्सु, अश्वत्थामा की भाँति
क्यों कि इनका दायित्त्व लिया है मैंने!"


"लेकिन मेरा दायित्त्व लेंगे
बाकी सभी... 
मेरा दायित्त्व वह स्थित रहेगा
हर मानव-मन के उस वृत्त में 
जिसके सहारे वह
सभी परिस्थितियों का अतिक्रमण करते हुए
नूतन निर्माण करेगा पिछ्ले ध्वंशों पर! 
मर्यादायुक्त आचरण में 
नित नूतन सृजन में 
निर्भयता के 
साहस के
ममता के
रस के 
क्षण में 
जीवित और सक्रिय हो उठूँगा मैं बार बार!"   
...
क्या कोई सुनेगा
जो अन्धा नहीं है, और विकृत नहीं है, और 
मानव-भविष्य को बचायेगा? 
...
मैंने सुने हैं ये अंतिम वचन 
मरणासन्न ईश्वर के 
जिसको मैं दोनों बाँहें उठाकर दोहराता हूँ
कोई सुनेगा!
क्या कोई सुनेगा ...
 क्या कोई सुनेगा...
...
एक तत्त्व है बीजरूप स्थित मन में 
साहस में, स्वतंत्रता में, नूतन सर्जन में 
वह है निरपेक्ष उतरता है पर जीवन में 
दायित्त्वयुक्त, मर्यादित, मुक्त आचरण में 
उतना जो अंश हमारे मन का है 
वह अर्द्धसत्य से, ब्रह्मास्त्रों के भय से 
मानव-भविष्य को हरदम रहे बचाता
अन्धे संशय, दासता, पराजय से ! 

बुधवार, 29 सितंबर 2010

राम की शक्तिपूजा... चुने हुए अंश





..आज का तीक्ष्ण-शर-विधृत-क्षिप्र-कर, वेग-प्रखर
शतशेल सम्वरणशील, नील नभ-गर्जित-स्वर,
प्रतिपल परिवर्तित व्यूह - भेद-कौशल-समूह
राक्षस-विरुद्ध-प्रत्यूह, - क्रुद्ध-कपि-विषम-हूह,
. .है अमानिशा, उगलता गगन घन-अन्धकार;
खो रहा दिशा का ज्ञान, स्तब्ध है पवन-चार;
अप्रतिहत गरज रहा पीछे अम्बुधि विशाल;
भूधर ज्यों ध्यान-मग्न; केवल जलती मशाल।
स्थिर राघवेन्द्र को हिला रहा फिर-फिर संशय
रह-रह उठता जग जीवन में रावण जय भय;
जो नहीं हुआ है आज तक हृदय रिपुदम्य-श्रान्त,
एक भी, अयुत-लक्ष में रहा जो दुराक्रान्त,
कल लड़ने को हो रहा विकल वह बार-बार,

. .सिहरा तन, क्षण भर भूला मन, लहरा समस्त,
हर धनुर्भंग को पुनर्वार ज्यों उठा हस्त,
..फिर विश्व-विजय-भावना हृदय में आयी भर,
वे आये याद दिव्य शर अगणित मन्त्रपूत, -
फड़का पर नभ को उड़े सकल ज्यों देवदूत,
देखते राम, जल रहे शलभ ज्यों रजनीचर,
ताड़का, सुबाहु, बिराध, शिरस्त्रय, दूषण, खर;

.. उद्वेग हो उठा शक्ति-खोल सागर अपार,
...शत घूर्णावर्त, तरंग-भंग, उठते पहाड़,
जल-राशि राशि-जल पर चढ़ता खाता पछाह,
तोड़ता बन्ध-प्रतिसन्ध धरा हो स्फीत -वक्ष
दिग्विजय-अर्थ प्रतिपल समर्थ बढ़ता समक्ष,
शत-वायु-वेग-बल, डूबा अतल में देश-भाव,
जल-राशि विपुल मध मिला अनिल में महाराव
वज्रांग तेजघन बना पवन को, महाकाश
पहुँचा, एकादश रूद्र क्षुब्ध कर अट्टहास।

रावण-महिमा श्यामा विभावरी, अन्धकार,
यह रूद्र राम-पूजन-प्रताप तेज:प्रसार;
...रावण? रावण - लम्पट, खल कल्मष-गताचार,

...अन्याय जिधर, हैं उधर शक्ति।" कहते छल-छल
हो गये नयन, कुछ बूँद पुन: ढलके दृगजल,
रुक गया कण्ठ, चमक लक्ष्मण तेज: प्रचण्ड
धँस गया धरा में कपि गह-युग-पद, मसक दण्ड
स्थिर जाम्बवान, - समझते हुए ज्यों सकल भाव,
व्याकुल सुग्रीव, - हुआ उर में ज्यों विषम घाव,

...आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर,
तुम वरो विजय संयत प्राणों से प्राणों पर,
रावण अशुद्ध होकर भी यदि कर सका त्रस्त
तो निश्चय तुम हो सिद्ध करोगे उसे ध्वस्त;
शक्ति की करो मौलिक कल्पना; करो पूजन,

... "मात:, दशभुजा, विश्व-ज्योति; मैं हूँ आश्रित;
हो विद्ध शक्ति से है महिषासुर खल मर्दित;
जनरंजन-चरण-कमल-तल, धन्य सिंह गर्जित!
यह, यह मेरा प्रतीक मात: समझा इंगित;
मैं सिंह, इसी भाव से करूँगा अभिनन्दित।"

...सब चले सदय राम की सोचते हुए विजय।
निशि हुई विगत : नभ के ललाट पर प्रथमकिरण
फूटी रघुनन्दन के दृग महिमा-ज्योति-हिरण;
हैं नहीं शरासन आज हस्त-तूणीर स्कन्ध
वह नहीं सोहता निबिड़-जटा-दृढ़ मुकुट-वन्ध;
सुन पड़ता सिंहनाद रण-कोलाहल अपार,
उमड़ता नहीं मन, स्तब्ध सुधी हैं ध्यान धार;

...संचित त्रिकुटी पर ध्यान द्विदल देवी-पद पर,
जप के स्वर लगा काँपने थर-थर-थर अम्बर;
...हो गया विजित ब्रह्माण्ड पूर्ण, देवता स्तब्ध;
हो गये दग्ध जीवन के तप के समारब्ध;

... जो नहीं जानता दैन्य, नहीं जानता विनय,
कर गया भेद वह मायावरण प्राप्त कर जय,
बुद्धि के दुर्ग पहुँचा विद्युत-गति हतचेतन
राम में जगी स्मृति हुए सजग पा भाव प्रमन।

...काँपा ब्रह्माण्ड, हुआ देवी का त्वरित उदय -
...देखा राम ने, सामने श्री दुर्गा, भास्कर
वामपद असुर स्कन्ध पर, रहा दक्षिण हरि पर,
ज्योतिर्मय रूप, हस्त दश विविध-अस्त्र सज्जित,
मन्द स्मित मुख, लख हुई विश्व की श्री लज्जित

"होगी जय, होगी जय, हे पुरूषोत्तम नवीन।"
कह महाशक्ति राम के बदन में हुई-लीन।

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रचयिता - महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' 

शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

पौधे, भोर, पीत प्रकाश, ध्वनि, उड़ते कपूर, लौ अर्पित - कविता? नहीं।

(1) 
बैठा हूँ युवा होते 
पौधों के बीच 
अकेला 
तीखे पीत प्रकाश में।  
झुटपुट भोर चारो ओर 
आए हैं याद वो अन्धेरे 
जब थे तुम्हारी ध्वनियों के उजाले। 
तुम गयी नहीं 
ग़ुम हो गई मेरे भीतर कहीं 
फिर भी तुम्हें आज ढूढ़ रहा हूँ
कहाँ हो? 
कपूर उड़ रहा है 

(2)

ओस नहायी दूब 
नंगे पैर चलते 
नमी का अनुभव किया है 
कैसे लिखूँ ? 
उन आँखों की 
जो डबडबाई हैं।

(3)
धूप से भागते
स्वयं को सूँघा है- 
तुम हो कपूर गन्ध 
धूप में 
मुझमें 
किससे भागना? 
कहाँ भागना? 
थम गया हूँ| 

मन्दिर में घंटा ध्वनि! 
चलूँ 
उड़ते कपूर कण
कर दूँ देव अर्पित 
...
इससे पहले कि वे जल उठें 
तीर तीर। 
    

शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

कबन्ध कबन्ध में राम का अंतर है।

सिर नहीं उनके
कान, नाक, आँख, मुँह
सब जेब में बन्द
वे हैं आज के कबन्ध।

मैं सिर झुकाए
उनसे बचता हूँ,
धीरे धीरे मैं भी
राम राम जपता
हो जाऊँगा कबन्ध
 - बिना जेब का।

कबन्ध कबन्ध में राम का अंतर है।

मंगलवार, 14 सितंबर 2010

गिन रहा हूँ...

गिन रहा हूँ क्षत चिह्न
जो तुमने दिए -
मन था जब
चरम प्रसन्न
और थी आस हुलास ।

तुमने
फुफकार दिए अवसाद श्वास।
थमता गया ज्वार
पानी पड़े ज्यों दूध उबाल।
क्या नेह का यही है प्रतिदान?
या मोद की नियति यही?
उफने क्षण भर को
और शमित हो जाय
बच जाय केवल दाह?

हर क्षतचिह्न है
मेरी एक नई हार का प्रमाण!
नहीं,
मेरे स्वास्थ्य का प्रमाण।
हर घाव से, हर आह से
मैं मुक्त हो सकता हूँ
पुन: उठ खड़ा हो सकता हूँ -
एक नए घाव को तैयार।

चाहत के युद्ध
(स्मित)
तुम वार वार
मैं निवार निवार
न तुम थकते
न मैं थकता।

सोचता हूँ
क्या होगी कभी
किसी की हार?
नहीं, युद्ध शाश्वत है,
न मैं थमूँगा और न तुम।

नेह कैसा जो थम जाने दे?
थम जाने पर नेह कैसा?
कैसा युद्ध?
कैसे क्षत चिह्न?
क्यों गिनना?

यह कैसी चाहत ?
क्षत चिह्न गिने जा रहे जिसमें!
गिन रहा हूँ नेह चिह्न सब।

नेह! क्षत नहीं?
हाँ, नेह।

बुधवार, 8 सितंबर 2010

टिप्पणी नहीं चाहिए। No comments please!

चलो आज सपने बुनें -
 चेताते मस्तिष्कों को
बन्द कर आलमारी में,
अनावृत्त हो दिगम्बर
चलो सपनों में रंग भरें।

मूर्खताएँ हसीन हैं
न खुश न कोई गमगीन है।
बेहिसाब नहाई तिजहर में
चलो सड़क पर खेलें -
इक्कुड़ दुक्कुड़
आइस पाइस।
चलो किसी राहगीर को
यूँ ही चिढ़ाते भाग चलें।

छ्न्द में कुछ वर्ण अधिक हैं
कुछ मात्राएँ कम हैं।
चलो यूँ करें
कविता फाड़ दें
टुकड़े गिलास में फेंट दें
फिर जमाएँ
निकाल कर एक एक अक्षर।
फिर कोई सीरियल देख लें
डायलॉग ऐसे ही तो बनते हैं!

अच्छा ऐसा करते हैं
आज के अखबार में केवल
विज्ञापन पढ़ते हैं
सभी विज्ञापन।
तुम स्टॉप वाच चालू करो
देखते हैं कौन पहले खत्म करता है?
"अबे, खत्म होने को कौन सर्टिफाई करेगा?"
"कहना ही मान लिया जाएगा।"
"ये सब क्या है?
ये बकबक क्यों कर रहे हो।"
"मुझे कुछ भुलाना है -
- घूरे पर फेंकी गई नवजात कन्या।
- बलात्कार के बाद मार दी गई
  आई सी यू में भर्ती लड़की।
- पंचायत की आँख सेंकने को
  न्याय करने को
  उघार दी गई औरत।
- खुद को बेंचने के बाद
  जाने क्या बचाने को
  ऊँचे फ्लैट से कूद गई युवती।
- ईश निन्दा के आरोप में
  हाथ कटाने वाला इंसान ..."
"भोले हो!
भुलाने से क्या होगा?"

"कुछ नहीं। कुछ भी नहीं। 
लेकिन 
सपने बचेंगे
रंग भरेंगे
खेलेंगे
चिढ़ाएँगे 
 सीरियल देखेंगे ... 

मैं बच तो जाऊँगा।
क्या यह कम है?"
"तुम्हारी तबियत ठीक नहीं है।"

चलो! सिगरेट पी आते हैं।
बेहतर है यह काम
कहीं माचिस लगाने से।

"तुम पागल हो।"

सोमवार, 6 सितंबर 2010

शंकर! धारण कर गरल

shankar
शंकर! धारण कर गरल
स्वहित, जनहित, देशहित।
हो नीलकंठ न भूल
रक्तकीच
छ्प छ्प करते नीच 

कंठ बीच शंकर! 
धारण कर गरल।

न कर विषवमन शंकर!
गहन घन अहम बजे डमरू
निकसें सृजन सूत्र सुकंठ
न कर विषवमन शंकर
धारण कर, बस धारण कर।


गाओ शंकर! ध्रुपद नाद
हो कलुष क्षर अक्षर अक्षर
पाणिनि रचें नव व्याकरण
गाओ शंकर! अक्षर अक्षर
शंकर! धारण कर
बस धारण कर गरल।


वसुधा फैला माया प्रमाद
शृगाल 
बजाते ताल गाल 
कर रहे नाट्य, केहरि नाद।  
यह समय विचित्र
आश्चर्य कहाँ! ठगे चित्र
गाओ शंकर! विराग राग
जड़ चेतन झूमें तज विषाद
खुले पोल खाली खलवाद
गाओ शंकर! अक्षर अक्षर।


शंकर! धारण कर गरल।
एक दृष्टि इधर भी: हे देश शंकर!

रविवार, 5 सितंबर 2010

लाइट ले यार!

ये कैसा इश्क है तेरा दिलवर?
जहाँ छूते हो वहीं दुखता है। 

दूसरा वर्जन: 

ये कैसा इश्क है तेरा दिलवर?
वहीं छूते हो जहाँ दुखता है।


शुक्रवार, 3 सितंबर 2010

...क्षितिज नहीं

तुम मिली।
अशेष
सभी कामनाएँ।
मेरी दृष्टि में
अब कोई क्षितिज नहीं।

थोड़ा ठहर मेरी महबूब!
वो बारिश भीन लेने दे।
हर्फ सूख तो लें
जो खतूत फिर से लिखें।
वो ठिठुरन अभी तक है
साँसों की सरगम
दुश्वारियाँ हैं 
ज़िन्दगी है दहकती
तुम्हारी महकती साँसों से
आहें बहकतीं।
उन्हें थाम तो लूँ
थोड़ा ठहर मेरी महबूब!
भोर को भीन लेने दे।
भीन लेने दे
मैं अब भी वही हूँ -
उन्हीं सीढ़ियों पर।
धुन्ध
अब भी टपके जा रही है
टप! टप!!
टप! टप!!
थोड़ा भीन लेने दे।
थोड़ा ठहर लेने दे।