धर्मवीर भारती कृत 'अन्धा युग' की अंतिम पंक्तियाँ आज याद आईं। व्याध के हाथों घायल मरते हुए कृष्ण की यह वाणी है:
- उस कृष्ण की जो महाभारत के बाद भी उसकी परिणति से असंतुष्ट थे और उसके बाद पुन: विराट ध्वंश के कर्त्ता और साक्षी हुए।
- व्यास जैसे ज्ञानी की जिनकी हताशा व्यक्त हुई - मैं हाथ उठा उठा कर कहता हूँ, क्या कोई सुनेगा?
कलिकाल रूपी अन्धे युग का प्रारम्भ उस व्यक्ति की मृत्यु से होता है जिसे उसके जीवनकाल में ही ईश्वर मान लिया गया था।
लेकिन इस अन्धे युग में भी कृति अंत में आशा के स्वर बिखेरती है।
मेरे मन में प्रश्न उठ रहे हैं। मज़हबी हठधर्मिता के कारण आज सम्पूर्ण मानव सभ्यता संकट में है। आखिर क्या कारण हैं जो सुसोच घुटने टेकती है? क्यों टेकती है? क्यों सभ्यता के नासूर बन कर घालमेल घाव मनुष्य को हमेशा से पीड़ित करते रहे हैं? क्या कारण हैं?
छोड़िए मेरी। मैं ऐसा ही हूँ। आप यह अंश पढ़िए और विचारिए।
_______________________________________________________________ "मरण नहीं है ओ व्याध!
मात्र रूपांतर है वह
सबका दायित्त्व लिया है मैंने अपने ऊपर
अपना दायित्त्व सौंप जाता हूँ मैं सबको
अब तक मानव-भविष्य को मैं जिलाता था
लेकिन इस अन्धे युग में मेरा एक अंश
निष्क्रिय रहेगा, आत्मघाती रहेगा
और विगलित रहेगा
संजय, युयुत्सु, अश्वत्थामा की भाँति
क्यों कि इनका दायित्त्व लिया है मैंने!"
"लेकिन मेरा दायित्त्व लेंगे
बाकी सभी...
मेरा दायित्त्व वह स्थित रहेगा
हर मानव-मन के उस वृत्त में
जिसके सहारे वह
सभी परिस्थितियों का अतिक्रमण करते हुए
नूतन निर्माण करेगा पिछ्ले ध्वंशों पर!
मर्यादायुक्त आचरण में
नित नूतन सृजन में
निर्भयता के
साहस के
ममता के
रस के
क्षण में
जीवित और सक्रिय हो उठूँगा मैं बार बार!"
...
क्या कोई सुनेगा
जो अन्धा नहीं है, और विकृत नहीं है, और
मानव-भविष्य को बचायेगा?
...
मैंने सुने हैं ये अंतिम वचन
मरणासन्न ईश्वर के
जिसको मैं दोनों बाँहें उठाकर दोहराता हूँ
कोई सुनेगा!
क्या कोई सुनेगा ...
क्या कोई सुनेगा...
...
एक तत्त्व है बीजरूप स्थित मन में
साहस में, स्वतंत्रता में, नूतन सर्जन में
वह है निरपेक्ष उतरता है पर जीवन में
दायित्त्वयुक्त, मर्यादित, मुक्त आचरण में
उतना जो अंश हमारे मन का है
वह अर्द्धसत्य से, ब्रह्मास्त्रों के भय से
मानव-भविष्य को हरदम रहे बचाता
अन्धे संशय, दासता, पराजय से !