घिर आई बदलियाँ कोई नाम न दो
स्याह शाम दिये को इलज़ाम न दो
तमाम शहर रोशन गलियों में आब
बेनूर से चेहरे कोई पहचान न दो
ठंडक से परेशाँ घर घर की गर्मी
बिस्तर बेसलवट वस्ल नाम न दो
बच्चों की रवायत जो खेले खामोश
ग़ुम खिलखिल को कोई पयाम न दो
है तासीर इनकी उलूली जुलूली
मेरे गीतों को बहरों की तान न दो
जो दूसरों की हैं, कवितायें हैं। जो मेरी हैं, -वितायें हैं, '-' रिक्ति में 'स' लगे, 'क' लगे, कुछ और लगे या रिक्त ही रहे; चिन्ता नहीं। ... प्रवाह को शब्द भर दे देता हूँ।
सोमवार, 28 जून 2010
शुक्रवार, 25 जून 2010
फुटकर
यकीं कैसे करूँ होठों पर
अटकी हैं आँखें आँखों पर।
उकूबत में हर्फ तड़पते रहे
रख दिए खत जो ताखों पर।
चटकते चटकारे तन्दूर घेरे
कोई मासूम है सलाखों पर।
चमन में क़ायम कोयल कूक
कौवों के घोसले शाखों पर।
अटकी हैं आँखें आँखों पर।
फूटते हैं अरमाँ-ए-इश्क
ब्याह में छूटते पटाखों पर।उकूबत में हर्फ तड़पते रहे
रख दिए खत जो ताखों पर।
चटकते चटकारे तन्दूर घेरे
कोई मासूम है सलाखों पर।
चमन में क़ायम कोयल कूक
कौवों के घोसले शाखों पर।
बुधवार, 23 जून 2010
पार्क में नीम
पार्क में एक नीम थी
किशोरावस्था में।
बढ़ रही थी -
तिताई को साध रही थी।
पार्क की भराई के दौरान
किसी ने रोका टोका नहीं
इसलिए ठीकेदार ने
बलुई मिट्टी भर दी थी।
उसका तर्क था
बहुत दिनों से इस खुली ज़मीन पर
लोग हग रहे थे - खाद ही खाद
पौधे ज़िन्दगी सूँघ खुद गहरे धँस जाएँगे।
उसका बेहूदा तर्क कृत्रिम था
न नीम को पसन्द न प्रकृति को
गहरे धँसने की बजाय नीम ने
जड़ों को फैलाया उथली बलुई मिट्टी में।
जाने कहाँ से खुराक मिली पानी मिला
नीम बढ़ती गई - भारी होती गई
हवाओं को यह पसन्द न आया
ज़ोर ज़ोर से बहने लगीं।
एक दिन नीम ढह पड़ी ।
कुछ दयावानों ने उसे उठाया
कि सहारा दे ठीक कर दें -
उथली जड़ नीम उखड़ गई ।
भौंचक्के से अपराधी से
दयावानों ने कर्मकाण्ड पूरे किए
गढ्ढा खोदा उस स्तर तक
जहाँ मल पूरित पोषक मिट्टी थी।
सहारा दे नीम को खड़ा किया
थुन्नी बाँधा , पानी दिया
रोप दिया - पुन:
पुण्य कमाया ।
जाते जाते मुँह में एक ने पत्ते डाल लिए
यूँ ही - थु: कितनी कड़वी है !
एक मैं भी था दयावानों में
देखा कि पार्क में सभी पौधे थे यथावत।
उनके पत्ते कड़वे नहीं थे
पोषक धरती तक पहुँचती
- उनकी जड़ें गहरी थीं ।
तभी तो नहीं गिरे !
मैं सोचता वापस आया
जब जड़ों में दम न था
तो नीम इतनी बढ़ी क्यों?
कैसे ?
कड़वे पत्ते वाली नीम ही क्यों बढ़ी इतनी ?
यह कविता नहीं - कई प्रश्न हैं
एक साथ ।
भीतर मेरे मुँह के लार में
घुल रही है कड़वाहट ।
ठीक वैसी ही, जैसी घुलने लगती है
दिमाग में तब, जब मैं
किसी को 'अच्छी सीख' देता हूँ ।
या किसी से 'अच्छी सीख' लेता हूँ।
उखड़ने और कड़वाहट घुलने में
क्या कोई सम्बन्ध है?
मैं क्यों लेता देता हूँ?
इन पंक्तियों को सोचते
उस नीम के पास खड़ा हूँ।
किसी ने फिर पानी नहीं डाला
(शायद यह पुण्य पर पानी डालना होता इसलिए) ।
पत्तियाँ मुरझा गई हैं।
नीम सूख रही है
धूप दिन ब दिन तेजस्वी है।
सूखती नीम ठूँठ सहारे खड़ी है।
कर्मकाण्ड सी निर्जीव हो चली है ।
मुझे बारिश की प्रतीक्षा है -
जो हो जाय तो मुझ पर पड़े 'घड़ों पानी'
नीम में शायद फिर अंकुर फूटें ।
कल से रोज़ आऊँगा
उसे 'अच्छी बात' सुनाऊँगा
मिट्टी कैसी भी हो
स्वभाव जैसे भी हों
बचते वही हैं
जो गहरे धँसते हैं
जो उथले फैलते नहीं हैं।
हवाओं का क्या ?
वे तो बस बहना जानती हैं।
किशोरावस्था में।
बढ़ रही थी -
तिताई को साध रही थी।
पार्क की भराई के दौरान
किसी ने रोका टोका नहीं
इसलिए ठीकेदार ने
बलुई मिट्टी भर दी थी।
उसका तर्क था
बहुत दिनों से इस खुली ज़मीन पर
लोग हग रहे थे - खाद ही खाद
पौधे ज़िन्दगी सूँघ खुद गहरे धँस जाएँगे।
उसका बेहूदा तर्क कृत्रिम था
न नीम को पसन्द न प्रकृति को
गहरे धँसने की बजाय नीम ने
जड़ों को फैलाया उथली बलुई मिट्टी में।
जाने कहाँ से खुराक मिली पानी मिला
नीम बढ़ती गई - भारी होती गई
हवाओं को यह पसन्द न आया
ज़ोर ज़ोर से बहने लगीं।
एक दिन नीम ढह पड़ी ।
कुछ दयावानों ने उसे उठाया
कि सहारा दे ठीक कर दें -
उथली जड़ नीम उखड़ गई ।
भौंचक्के से अपराधी से
दयावानों ने कर्मकाण्ड पूरे किए
गढ्ढा खोदा उस स्तर तक
जहाँ मल पूरित पोषक मिट्टी थी।
सहारा दे नीम को खड़ा किया
थुन्नी बाँधा , पानी दिया
रोप दिया - पुन:
पुण्य कमाया ।
जाते जाते मुँह में एक ने पत्ते डाल लिए
यूँ ही - थु: कितनी कड़वी है !
एक मैं भी था दयावानों में
देखा कि पार्क में सभी पौधे थे यथावत।
उनके पत्ते कड़वे नहीं थे
पोषक धरती तक पहुँचती
- उनकी जड़ें गहरी थीं ।
तभी तो नहीं गिरे !
मैं सोचता वापस आया
जब जड़ों में दम न था
तो नीम इतनी बढ़ी क्यों?
कैसे ?
कड़वे पत्ते वाली नीम ही क्यों बढ़ी इतनी ?
यह कविता नहीं - कई प्रश्न हैं
एक साथ ।
भीतर मेरे मुँह के लार में
घुल रही है कड़वाहट ।
ठीक वैसी ही, जैसी घुलने लगती है
दिमाग में तब, जब मैं
किसी को 'अच्छी सीख' देता हूँ ।
या किसी से 'अच्छी सीख' लेता हूँ।
उखड़ने और कड़वाहट घुलने में
क्या कोई सम्बन्ध है?
मैं क्यों लेता देता हूँ?
इन पंक्तियों को सोचते
उस नीम के पास खड़ा हूँ।
किसी ने फिर पानी नहीं डाला
(शायद यह पुण्य पर पानी डालना होता इसलिए) ।
पत्तियाँ मुरझा गई हैं।
नीम सूख रही है
धूप दिन ब दिन तेजस्वी है।
सूखती नीम ठूँठ सहारे खड़ी है।
कर्मकाण्ड सी निर्जीव हो चली है ।
मुझे बारिश की प्रतीक्षा है -
जो हो जाय तो मुझ पर पड़े 'घड़ों पानी'
नीम में शायद फिर अंकुर फूटें ।
कल से रोज़ आऊँगा
उसे 'अच्छी बात' सुनाऊँगा
मिट्टी कैसी भी हो
स्वभाव जैसे भी हों
बचते वही हैं
जो गहरे धँसते हैं
जो उथले फैलते नहीं हैं।
हवाओं का क्या ?
वे तो बस बहना जानती हैं।
बुधवार, 16 जून 2010
लाली
लाली !
पहली बार भोर में मिले थे हम
कई दिनों के इशारे के बाद।
मैंने कहा था
" तुम्हें ध्रुवतारा दिखा दूँ?
अटल रहता है। "
" यही दिखाने को
बुलाए इस समय ?"
कुछ कह पाता कि
तुम सिमट आई थी
"मुझे दिखाओ" ।
सप्तर्षि के सहारे
ध्रुवतारा देखने के बहाने
तुम लिपट ही गई थी !
और
मेरी साँसे रुक गई थीं
वह मृत्यु का पहला अनुभव था ।
यकीं हुआ कि मेरा यह पहला जन्म -
यकीं हुआ कि मैं प्रेम अभिशप्त
स्वर्ग से धरती की ओर दण्डित ।
"ऐसा शमाँ !
तुम्हें साँप क्यों सूँघ गया ?
बड़े कायर हो ! "
मुझे दर्शन हुआ
अपने पहले दोष का ।
पहली बार भोर में मिले थे हम
कई दिनों के इशारे के बाद।
मैंने कहा था
" तुम्हें ध्रुवतारा दिखा दूँ?
अटल रहता है। "
" यही दिखाने को
बुलाए इस समय ?"
कुछ कह पाता कि
तुम सिमट आई थी
"मुझे दिखाओ" ।
सप्तर्षि के सहारे
ध्रुवतारा देखने के बहाने
तुम लिपट ही गई थी !
और
मेरी साँसे रुक गई थीं
वह मृत्यु का पहला अनुभव था ।
यकीं हुआ कि मेरा यह पहला जन्म -
यकीं हुआ कि मैं प्रेम अभिशप्त
स्वर्ग से धरती की ओर दण्डित ।
"ऐसा शमाँ !
तुम्हें साँप क्यों सूँघ गया ?
बड़े कायर हो ! "
मुझे दर्शन हुआ
अपने पहले दोष का ।
छुट्टी के दिन
खड़ी दुपहरी ।
चूड़ी पहनाने वाली
की ओट ले
तुम्हें घूरता मैं -
प्रसन्नता थी छलक रही
खेल रहे थे होठ और गाल
लुकाछिपी
हँसी के बहाने -
और तुमने बहन से कहा था
देखो फालतू दाँत निपोर रहा है,
मउगा !
मैं चुल्लू भर पानी में
डूब मरा था।
खड़ी दुपहरी ।
चूड़ी पहनाने वाली
की ओट ले
तुम्हें घूरता मैं -
प्रसन्नता थी छलक रही
खेल रहे थे होठ और गाल
लुकाछिपी
हँसी के बहाने -
और तुमने बहन से कहा था
देखो फालतू दाँत निपोर रहा है,
मउगा !
मैं चुल्लू भर पानी में
डूब मरा था।
याद आती है वह शाम
प्रगल्भ हो मैंने
कहा था तुमसे -
बहुत मीठी हो
तुम्हारी आँखों ने
उत्तर दिया -
छिछोरे हो
होठ तुम्हारे हिले तक नहीं।
उस नीम के नीचे
कड़वाहट की बयार बह चली थी।
प्रगल्भ हो मैंने
कहा था तुमसे -
बहुत मीठी हो
तुम्हारी आँखों ने
उत्तर दिया -
छिछोरे हो
होठ तुम्हारे हिले तक नहीं।
उस नीम के नीचे
कड़वाहट की बयार बह चली थी।
वह गहरी रात !
संगीत के सुर
लिहाफ माँग रहे थे।
शादी की थकी खुशियाँ
कर रहीं थीं सोने के जतन -
तुमने हाथ पकड़ा था
आज भी याद है
जाड़े की वह गर्मी !
मैं खड़ा स्तब्ध
तुम्हारी साँसें लेने लगीं
टोह मेरी साँसों की
और अनजाने ही
बहक उठे थे मेरे हाथ
"छि: बड़े बेशरम हो !"
तुम भाग खड़ी हो गई
माँ के पास ।
तुमने बनाया मुझे
पहली बार
गुनाही ।
संगीत के सुर
लिहाफ माँग रहे थे।
शादी की थकी खुशियाँ
कर रहीं थीं सोने के जतन -
तुमने हाथ पकड़ा था
आज भी याद है
जाड़े की वह गर्मी !
मैं खड़ा स्तब्ध
तुम्हारी साँसें लेने लगीं
टोह मेरी साँसों की
और अनजाने ही
बहक उठे थे मेरे हाथ
"छि: बड़े बेशरम हो !"
तुम भाग खड़ी हो गई
माँ के पास ।
तुमने बनाया मुझे
पहली बार
गुनाही ।
सुबह होते होते
मुझे जाड़े में लू लग गई।
सात दिनों तक ज्वरग्रस्त
ज्वर के साथ तुम भी उतर गई।
मुझे जाड़े में लू लग गई।
सात दिनों तक ज्वरग्रस्त
ज्वर के साथ तुम भी उतर गई।
नहीं !
तुम वह सान नहीं थी
जिस पर मैं धारदार होता ।
तुमने किया मुझे हमेशा
लुहलुहान
कभी अपने होठ रँगने को
कभी मुझे परखने को
एक एक बूँद
करती गई मुझे
शनै: शनै: प्रमाणित
और तुम ?
बस लाल होती गई ।
आज याद आई हो तो बस
दिख रही हो
कुछ निर्जीव रेखाओं सी ।
तुम्हारे इर्द गिर्द चार चार बच्चे!
लाली गई तेल लेने ।
आइने में खुद को देखता हूँ -
आत्ममुग्ध नहीं, आलोचक की तरह।
केश कुछ उड़ से चले हैं
मूछें कहीं कहीं चाँदी ।
लेकिन -
भोला बच्चा
शर्मीला किशोर
नादान जवान
सब
अभी भी वैसे ही हैं ।
आँखों में है सम्मोहन
मेरी मुस्कान में आज भी है -
लाली।
...
और मैंने अपनी पत्नी को
दिन ब दिन
वर्ष दर वर्ष
लाल होते देखा है ।
आत्ममुग्ध नहीं, आलोचक की तरह।
केश कुछ उड़ से चले हैं
मूछें कहीं कहीं चाँदी ।
लेकिन -
भोला बच्चा
शर्मीला किशोर
नादान जवान
सब
अभी भी वैसे ही हैं ।
आँखों में है सम्मोहन
मेरी मुस्कान में आज भी है -
लाली।
...
और मैंने अपनी पत्नी को
दिन ब दिन
वर्ष दर वर्ष
लाल होते देखा है ।
ये क्या ?
ड्रेसिंग टेबल पर
लुढ़क गई नेल पॉलिश की शीशी
शब्द सा बन रहा है -
लाल लाल ।
पढ़ता हूँ
नहीं वह 'हिंसा' नहीं है
बस है लाल लाल।
... लाली।
रविवार, 13 जून 2010
आर्जव और डीहवारा
अभिषेक कुशवाहा को पढ़ना अपने आप में एक गहन, सघन और अलग अनुभव है। सम्भवत: आप गहन और सघन के एक साथ प्रयोग को देख चौंकें लेकिन मुझे यह उपयुक्त लग रहा है।
अनुभव ऐसा
जैसे कोई अनजानी सुगन्ध
धीरे से कहीं से उड़ आ कर
सक्रिय कर दे संवेदी रोम
मुग्ध से चल दें पीछे आँखें मींचे।
बढ़ें ज्यों ज्यों
महकने लगे समूचा अस्तित्त्व।
आप हो जाँय स्नात - गन्ध गन्ध, छन्द छन्द ...
भीग उठें सहज लय प्रवाही काव्यधारा में
ठिठुरन की सीमा तक
हर कम्पन खोले नए नए अर्थ,
प्रगाढ़ कविता नवरस बरसाती
भीन उठे अस्तित्त्व के पोर पोर ।
ऐसी कविता, जो
- सम्वेदना, कोमलता और अनुभव के वैविध्य को सार्वकालिक व्याकरण में बाँधती है और फिर भी मुक्त रहती है,
- कहीं आप के अनकहे बँधे से भावों को मुक्त करती है।
पढ़नी हो तो इनके ब्लॉग आर्जव पर जाएँ।
ब्लॉग पर कम रचने वाले आर्जव का मंत्र है - सहज, सरल, सतत ...।
एक और रहस्य यह है कि अभिषेक सर्वप्रिय कवि ब्लॉगर हिमांशु कुमार पाण्डेय के छात्र रहे हैं। इनकी अभी की कविता फिर उथले किनारों से ही लौट आए हैं ! से कुछ पंक्तियाँ उद्धृत कर रहा हूँ। इन पंक्तियों की प्रशंसा के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं। नि:शब्द हूँ:
सांझ की नीलम पट्टिका ओढ़
सुदूर बहुत सलिल तीरे ,स्तब्ध
सो रही है जो हरे गाछों की घनी बस्ती
जिन पर चांद से चुरायी चन्द्रिका को
बना अच्छत छींटते हैं प्रकाश कीट
विशाल वृक्ष जिनमें , अर्द्ध-मुखरित , स्तिमित
कर रहें हैं श्रेयस सांध्य गीत मौन वाचन
मौन ही की धुन पर , लयमयी , सुरमयी
_____________________________________________________
१.सुबह
------
चीड के पेड़ों पर उतरी
अनमनी अलसाई भोर ने
मलते हुए आँखें खोलीं
और एक अजनबी को ताकते देख
कुछ झिझकी , कुछ शरमाई
फिर कोहरे का घूँघट काढ लिया.
ठंड खाए सूरज ने खंखारा
भोर कुछ और सिमटी .
दो अँगुलियों से घूंघट टार कर
उसने कनखियों से अजनबी को देखा,
अजनबी ने बाहें फैला दीं
दूर तक की घाटियाँ समेट लेने भर
और हलका- सा मुस्कुरा दिया.
समय पहले थमा
कुछ देर जमा
और फिर पिघलकर सुबह बन गया.
२. दोपहर
---------------
सूरज आज छुट्टी पर है.
चंचला घाटियों ने न्यौत दिया एक-दूसरे को
दिन से बद ली शर्त
और छिप गयीं जाकर दूर-दूर
हरे दरख्तों के पीछे.
दिन ने कहा-- आउट
एक घाटी निकल आई बाहर
फिर दूसरी , फिर तीसरी
एक-एककर सभी घाटियाँ निकल आयीं बाहर
आउट होकर .
रह गयी एक घाटी
सबसे छोटी
दुधमुहें बच्चे-सी
मनुष्यों के जंगल में खोकर.
डांट खाई घाटियाँ
तलाशती रहीं रुआंसी हो
तमाम दोपहर,
अमर्ष से भर-भर आयीं
बार-बार.
३.सांझ
-----------
रिज की रेलिंगों पर कुहनियाँ टिकाये
ललछौहीं शाम
झांकती रही घाटी में
देर.... बहुत दे....र तक...
तब तक, जब तक कि
चिनार सो नहीं गए,
सड़कें चलीं नहीं गयीं अपने घर
और कुंवारी हवाएं लौट नहीं आयीं
दिन भर खटने के बाद.
४.रात : अमावस की
-----------
सो गए हैं सब
चिनार और कबूतर
झरने की लोरियां सुनते.
सज चुकी है
सलमे-सितारे जड़ी पोशाक पहन
अभिसारिका घाटी.
रह-रहकर देखती है निरभ्र आकाश--
मुझसे तो कम ही हैं!
गहराई रात और
टिक गयीं क्षितिज पर आँखें
एकटक...
न निकलना था
न निकला चाँद .
आहतमना
पूरितनयना
एक-एककर तोड़ती रही सितारे
फेंकती रही आकाश में
सो जाने तक.
आर्जव पर यह पोस्ट लिखने के बाद एक और ब्लॉग डीहवारा पर पहुँचा। सच मानिए अगर आर्जव को पढ़ कर मुग्ध हो नाच की अवस्था में आ गया था तो रजनी कांत ( kant:)) के इस ब्लॉग पर पहुँच कर स्तब्ध रह गया !
सम्मोहित सा पोस्ट दर पोस्ट पढ़ता गया। लगा जैसे मेरा परिष्कृत 'मैं' रच रहा हो। ढेर सारी टिप्पणियाँ कर आया।
और उनकी कविता शिमला: जैसा मैंने देखा ने तो जैसे विवश कर दिया कि आप को बताऊँ। 8 टिप्पणियों के बाद (अदा जी के बाद) यह अंश जोड़ रहा हूँ।
आप देखिए यह कविता:
------
चीड के पेड़ों पर उतरी
अनमनी अलसाई भोर ने
मलते हुए आँखें खोलीं
और एक अजनबी को ताकते देख
कुछ झिझकी , कुछ शरमाई
फिर कोहरे का घूँघट काढ लिया.
ठंड खाए सूरज ने खंखारा
भोर कुछ और सिमटी .
दो अँगुलियों से घूंघट टार कर
उसने कनखियों से अजनबी को देखा,
अजनबी ने बाहें फैला दीं
दूर तक की घाटियाँ समेट लेने भर
और हलका- सा मुस्कुरा दिया.
समय पहले थमा
कुछ देर जमा
और फिर पिघलकर सुबह बन गया.
२. दोपहर
---------------
सूरज आज छुट्टी पर है.
चंचला घाटियों ने न्यौत दिया एक-दूसरे को
दिन से बद ली शर्त
और छिप गयीं जाकर दूर-दूर
हरे दरख्तों के पीछे.
दिन ने कहा-- आउट
एक घाटी निकल आई बाहर
फिर दूसरी , फिर तीसरी
एक-एककर सभी घाटियाँ निकल आयीं बाहर
आउट होकर .
रह गयी एक घाटी
सबसे छोटी
दुधमुहें बच्चे-सी
मनुष्यों के जंगल में खोकर.
डांट खाई घाटियाँ
तलाशती रहीं रुआंसी हो
तमाम दोपहर,
अमर्ष से भर-भर आयीं
बार-बार.
३.सांझ
-----------
रिज की रेलिंगों पर कुहनियाँ टिकाये
ललछौहीं शाम
झांकती रही घाटी में
देर.... बहुत दे....र तक...
तब तक, जब तक कि
चिनार सो नहीं गए,
सड़कें चलीं नहीं गयीं अपने घर
और कुंवारी हवाएं लौट नहीं आयीं
दिन भर खटने के बाद.
४.रात : अमावस की
-----------
सो गए हैं सब
चिनार और कबूतर
झरने की लोरियां सुनते.
सज चुकी है
सलमे-सितारे जड़ी पोशाक पहन
अभिसारिका घाटी.
रह-रहकर देखती है निरभ्र आकाश--
मुझसे तो कम ही हैं!
गहराई रात और
टिक गयीं क्षितिज पर आँखें
एकटक...
न निकलना था
न निकला चाँद .
आहतमना
पूरितनयना
एक-एककर तोड़ती रही सितारे
फेंकती रही आकाश में
सो जाने तक.
शब्दचिह्न :
अभिषेक कुशवाहा,
आर्जव,
डीहवारा,
रजनी कांत
शनिवार, 12 जून 2010
कविता भी साथ छोड़ गई है !
दो दिनों के अखबार
मच्छरमार हथियार
रिमोट कंट्रोल
मोजे
मोबाइल
गिटार
लैप टॉप -
सब
बिस्तर पर इकठ्ठे हैं
तुम जो नहीं हो !
यह इकठ्ठा होना
इतने बिलग तत्वों का
तुम्हारी अनुपस्थिति को
सान्द्र करता है।
बताता है
बिन घरनी
घर प्रेत का डेरा
प्रेत भी कैसा !
एक कमरे में कैद
अव्यवस्थित
कैसा समय
कविता भी साथ छोड़ गई है !
शुक्रवार, 11 जून 2010
फुटबाल विश्वकप का थीम गीत
सोमालिया में जन्मे कनाडाई नागरिक क'नान का गीत 'वेविङ फ्लैग Wavin' Flag' फीफा विश्वकप 2010 का थीम गीत है। खेल की उत्सवधर्मिता को व्यक्त करने के लिए इस गीत की रीमिक्सिंग की गई है। इस गीत के ऑडियो वीडियो को सुनना देखना अपने आप में एक अलग अनुभव है। इंटरनेट पर गीत उपलब्ध है।
आइए इस गीत से आप का परिचय करा दूँ। क़्वींस इंग्लिश के अभ्यस्त अपने देश वालों को यह गीत अव्यवस्थित लग सकता है लेकिन इसके 'बिखराव' में अफ्रीका से लेकर कनाडा तक फैले अंग्रेजी के कई संस्करणों का मिश्रण है। खेल तो ऐसे ही सम्मिलन और मेल जोल के लिए होते हैं !
मूल और भावानुवाद प्रस्तुत कर रहा हूँ:
Ooooooh Wooooooh Give me freedom, give me fire, give me reason, take me higher See the champions, take the field now, you define us, make us feel proud In the streets are, exaliftin , as we lose our inhabition, Celebration its around us, every nation, all around us Singin forever young, singin songs underneath that sun Lets rejoice in the beautiful game. And together at the end of the day. WE ALL SAY When I get older I will be stronger They'll call me freedom Just like a wavin' flag And then it goes back And then it goes back And then it goes back When I get older I will be stronger They'll call me freedom Just like a wavin' flag And then it goes back And then it goes back And then it goes Oooooooooooooh woooooooooohh hohoho Give you freedom, give you fire, give you reason, take you higher See the champions, take the field now, you define us, make us feel proud In the streets are, exaliftin, every loser in ambition, Celebration, its around us, every nations, all around us Singin forever young, singin songs underneath that sun Lets rejoice in the beautiful game. And together at the end of the day. | वू ssss वो ssss हो sss! आज़ादी मुझे दो, भर दो आग सीने में मक़सद दो ले चलो मुझे ऊँचे देखो उन योद्धाओं को दौड़ो खुले मैदान में अब मक़सद दो जो नाज़ हो हमें। भर दें हम गलियों को तोड़ कर मन के सारे बन्धन उत्सव है हमारे चारो ओर सारा संसार हमें घेरे है उत्सव है चारो ओर। गाते रहें हमेशा जवाँ सूरज के नीचे गूँजे गीत सुन्दर खेल का आनन्द लें हम और जब दिन का हो अंत हम सब कहें: "मैं जब सयाना हूँगा आएगी और अधिक शक्ति लहराते झंडे की तरह वे मुझे आज़ाद कहेंगे" और फिर सब मुड़ कर कहें और फिर सब मुड़ कर कहें और कहते रहें: वू ssss वो ssss हो sss आज़ादी तुम्हें दें, भर दें आग सीने में मक़सद दे कर ले चलें तुम्हें ऊँचे देखो उन योद्धाओं को दौड़ो खुले मैदान में अब तुम हमें मक़सद दो जो नाज़ हो हमें। उमंगों के हारे अब भर दें गलियों को तोड़ कर मन के सारे बन्धन उत्सव है हमारे चारो ओर सारा संसार हमें घेरे है उत्सव है चारो ओर। गाते रहें हमेशा जवाँ सूरज के नीचे गूँजे गीत सुन्दर खेल का आनन्द लें हम दिन के अंत तक साथ साथ साथ साथ । |
बुधवार, 9 जून 2010
आओ प्रिये !
अब जब कि मैं लिखना चाहता हूँ
ढेर सारा
अनुभूतियाँ हैं ढेर सारी
और शब्द स्रोत सूख गए हैं -
तुम्हारी प्रतीक्षा है।
तुम जो बैठी रहती थी
ठीक पीछे स्क्रीन को ताकती
झूलते रहते थे तुम्हारे अलक
की बोर्ड पर
और कानों को घेरती वह साँसे !
साँसों और शब्दों की केमिस्ट्री
अभिव्यक्ति के कितने समीकरण
सजा जाती थी !
शब्दों के खुलते थे नए अर्थ
सहारा लिए तुम्हारी देह के
बदलते दबावों के साथ ।
कितनी ही बार
जब टपके आँसू
की बोर्ड पर !
न सोचा कभी
तुम्हारे या मेरे ?
मैं चकित हुआ
गंगा यमुना के संगम पर
और सरस्वती बहती रही ।
एक त्रासदी
जारी रही
मैं कागज पर नहीं लिख पाता
मस्तिष्क के जाने किस कोने
कुछ अघटित हुआ कभी
अंगुलियों से निकसे शब्द
हो गए मुड़े तुड़े अक्षर
(उनका ब्रह्मत्व लुप्त )
मात्राएँ सवार व्यञ्जनों पर
कुरूपता के प्रतिमान स्थापित करते -
मुझे याद नहीं रहा
आखिरी बार कब सुन्दर लिखा था !
याद रहता भी क्यों ?
आवश्यकता भी क्या थी ?
तुम थी
की बोर्ड पर झूलते अलक
कानों के पास टहलती साँसें
देह का देह पर टहलता दबाव
टपकते आँसू
तो कभी मुस्कान से
बदलती साँसों की लय -
हाँ, मैं था -
देहधर्मी कवि ।
जो कुछ रचता था
उनमें न थे :
उदात्तता
आलोचक प्रिय सौन्दर्य
गरिमा
क्रोध
प्रेम
घृणा ...
बस तुम थी
तुम्हारी गढ़न
व्यवस्थित अक्षर अक्षर
मेरी हर अभिव्यक्ति
ढल जाती थी
अद्भुत शिल्पकारी में !
लोग कहते थे
क्या खूब रचता है !
आज तुम नहीं हो
साँस, आँसू, दबाव, मुस्कान ...
सब विलुप्त
खो गई है ऊष्मा
किस गर्भ से
कैसे कोई अंकुर फूटे ?
धरती नहीं होती बन्ध्या कभी
यह ज्ञान हुआ है कि
ऊष्मा न हो तो कुछ नहीं ।
ढेर सारा यूँ होता है
कुछ नहीं
कुछ भी नहीं -
आओ ! फिर से आओ!!
की बोर्ड की टक टक को
जीवन दो
स्वर दो
ऊष्मा दो
आँसू दो
स्मित दो
घेर लो एक बार फिर
ऊष्ण साँसों की गन्ध से !
मैं रचना चाहता हूँ।
थकान से मुक्त होना चाहता हूँ।
आओ प्रिये !
रविवार, 6 जून 2010
लघु गीत
बादर साज नयन रहे कोरे
उड़ रही धूर मलय संग भोरे
उमस की कोठ सजन लिए ओट
पेम के नेम तजत रहे सो रे
उड़ रही धूर मलय संग भोरे ।
ऋतु बदल रही ऋतु अखर गई
सेज दुखी नहिं ताँतन तोरे**
बादर साज नयन रहे कोरे।
** प्रणय केलि के समय खाट के तंतुओं की चरमराहट
शुक्रवार, 4 जून 2010
गंध
साँझ आम सड़क सिगरेट
अचानक तुम ?
धुआँ गुबार दफन भीतर
लरजते आँसू रोक
तुम्हारी देह गंध
हवा में जोहता रहा
तुम दूर
बिना मुड़ कर देखे
(कहा नहीं जा रहा)
यूँ चली गई !
बस देखता रहा
कारे केश -
आग बुझी राख गिरी
कड़वाहट उतराई
याद आया वह दिन
जब पी थी
पहली सिगरेट ।
हूँ दीवाना
अकेले में अंगुलियों के पोर जोड़
होठों पर रखता हूँ
वह ...तुम्हारे अधरों का स्पर्श
कहां ?
कितनी दफे वर्कशॉप जाते
अपनी खाकी को भिगो
सूँघा है
कि गंध मिल जाय तुम्हारी
कहाँ... वह ऊष्मा कहाँ !
दिन की जीवन लहरियां
अब काठ हैं - तुम जो नहीं हो
जिन्दगी अब गन्धहीन है...
मेरे कमरे के बाहर
रातरानी सूख चली है -
माली कहता है
अब की गरमी
क्या लू चली है
यूं ही भटकता हूँ
साँझ आम सड़क सिगरेट ।
... सिगरेट सिगरेट
छल्ले धुआँ धुआँ...
शब्दचिह्न :
गंध,
प्रेम,
प्रेम कविता,
प्रेमकविता
बुधवार, 2 जून 2010
न रो बेटी
न रो बेटी
माँ की डाँट पर न रो ।
वह चाहती है कि
वयस्क हो कर तुम
उस जैसी नारी नहीं
अपने पापा जैसी 'मनुष्य' बनो
(उसे मनुष्य और नारी के फर्क की समझ है) ।
लेकिन उसकी यह भी कामना है:
कि सहलाएँगे तुम्हारे बोल
कराहते तुम्हारे सहचर को।
अपने बच्चे को तुम लोरी सुना कर सुलाओगी।
ज्वर से तपते मस्तकों पर
झरते तुम्हारे आँसू ताप हरेंगे ।
वह धरा पर आदि नारी की प्रतिनिधि है।
संक्षेप में कहूँ तो
उसे डर है
(आदिम है कि नहीं? नहीं पता)
कहीं
मनुष्य होने की प्रक्रिया में
तुम्हारे भीतर की नारी न समाप्त हो जाय !
तुम्हारे आँचल में वह दूध
और आँखों में पानी भी चाहती है -
ये न रहे तो मनुष्यता कैसे जीवित रह पाएगी?
अपने डर का तनाव
वह तुम तक पहुँचाती है
डाँटती है
न रो बेटी ।
माँ समझती है
समझाती है
कि
यात्रा लम्बी और कष्टकारी है,
मनुष्य और नारी के बीच भारी है
नासमझी -
जाने तुम कैसे डाँटोगी
अपनी बेटी को ?
क्या उसकी आवश्यकता भी होगी ?
तुम्हारे मनुष्य
(नर का पर्यायवाची)
पापा
इन प्रश्नों से ही जूझते रहते हैं।
चुप रहते हैं
तुम्हें दुलराते रहते हैं ।
सच यह है कि
प्रश्नों के आगे
अपनी विवशता
को भुलवाते हैं।
प्यार भुलवना भी होता है बेटी !
न रो
माँ की डाँट पर न रो !
माँ की डाँट पर न रो ।
वह चाहती है कि
वयस्क हो कर तुम
उस जैसी नारी नहीं
अपने पापा जैसी 'मनुष्य' बनो
(उसे मनुष्य और नारी के फर्क की समझ है) ।
लेकिन उसकी यह भी कामना है:
कि सहलाएँगे तुम्हारे बोल
कराहते तुम्हारे सहचर को।
अपने बच्चे को तुम लोरी सुना कर सुलाओगी।
ज्वर से तपते मस्तकों पर
झरते तुम्हारे आँसू ताप हरेंगे ।
वह धरा पर आदि नारी की प्रतिनिधि है।
संक्षेप में कहूँ तो
उसे डर है
(आदिम है कि नहीं? नहीं पता)
कहीं
मनुष्य होने की प्रक्रिया में
तुम्हारे भीतर की नारी न समाप्त हो जाय !
तुम्हारे आँचल में वह दूध
और आँखों में पानी भी चाहती है -
ये न रहे तो मनुष्यता कैसे जीवित रह पाएगी?
अपने डर का तनाव
वह तुम तक पहुँचाती है
डाँटती है
न रो बेटी ।
माँ समझती है
समझाती है
कि
यात्रा लम्बी और कष्टकारी है,
मनुष्य और नारी के बीच भारी है
नासमझी -
जाने तुम कैसे डाँटोगी
अपनी बेटी को ?
क्या उसकी आवश्यकता भी होगी ?
तुम्हारे मनुष्य
(नर का पर्यायवाची)
पापा
इन प्रश्नों से ही जूझते रहते हैं।
चुप रहते हैं
तुम्हें दुलराते रहते हैं ।
सच यह है कि
प्रश्नों के आगे
अपनी विवशता
को भुलवाते हैं।
प्यार भुलवना भी होता है बेटी !
न रो
माँ की डाँट पर न रो !
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