शनिवार, 22 मई 2010

चुपचाप रहता न मुस्कुराता हूँ मैं
पड़ोसी को देख 
उसी की तरह 
अजनबी हो जाता हूँ मैं।
न कहता कुछ भी 
दिल में सब रखता 
दोस्तों को गले लगाता हूँ मैं । 
अपने काम से काम 
एक शहरी का फर्ज़ 
निभाता हूँ मैं। 
डिनर के बाद 
दो ह्विस्की के पैग
लगाता हूँ मैं। 
फिर भी जाने क्यों 
सोते सोते रातों में 
यूँ ही जाग जाता हूँ मैं।  
जाने कैसा है ये फर्ज़ 
न जानूँ फिर भी
निभाता हूँ मैं
यूँ ही जाग जाता हूँ मैं।

15 टिप्‍पणियां:

  1. डिनर के बाद
    दो ह्विस्की के पैग
    लगाता हूँ मैं।
    ------- हुजूर क्या आप ????
    संभव है यह सिर्फ काव्य-सत्य हो ! आमीन !
    फिर भी छोटी सी कविता में एक अंतर्द्वंद्व को रखा है आपने !

    जवाब देंहटाएं
  2. दिल में सब रखता
    दोस्तों को गले न लगाता हूँ मैं ।
    अपने काम से काम
    एक शहरी का फर्ज़
    निभाता हूँ मैं।
    क्या कहूं?

    जवाब देंहटाएं
  3. मनोभावो को बहुत सुन्दर शब्द दिए हैं..बधाई।

    जवाब देंहटाएं
  4. कुछ चीजें..कुछ बातें साफ हुई हैं/साफ कही हैं !

    "दोस्तों को गले न लगाता हूँ मैं ।"..यहाँ ’न’ हट भी जाता तो काम चलता !

    जवाब देंहटाएं
  5. @ हिमांशु जी,
    'न' हटा दिया। बड़े शहरों की ज़िन्दगी अब 'सीने में जलन आँखों में तूफान सा क्यूँ है' की बिडम्बना से आगे वहाँ पहुँच चुकी है जहाँ जलन और तूफान स्वीकृत हो चले हैं। मन में सवाल तक नहीं उठते । एक अज़ीब तरह की झुँझलाहट है जो नकार नहीं पाती क्यों कि नकार के साथ ही बिडम्बना और रोटी से जुड़ी समस्याएँ इतनी बड़ी दिखने लगती हैं कि सिट्टी पिट्टी गुम हो जाती है।
    दोस्त हैं लेकिन सतर्क से। विमर्श के और समागम के विषय या बहाने परिवेश से बाहर वालों के लिए कौतुहलकारी नहीं भयकारी हैं। 'गोली मार भेजे में ..' का बेलौसपना भी नहीं, अजीब सी बँधी जिन्दगी है, सिमटी हुई सी, औपचारिक सी। कहने के लिए भी दोस्त गले नहीं लगते ...दिखावे तक की हैसियत आधुनिक पहनावे सी हो गई है - यूज एण्ड थ्रो ...
    इस विषय पर लिखने की पात्रता नई पीढ़ी में है क्यों कि वह भीतर है हमारी तरह दर्शक नहीं - पंकज उपाध्याय, अपूर्व, दर्पण शाह, दीपक मशाल, पूजा जैसे बेहतर लिख पाएँगे। यह पीढ़ी चेतन भगत के उपन्यासों के पात्रों सरीखी है।

    जवाब देंहटाएं
  6. @... यह पीढ़ी चेतन भगत के उपन्यासों के पात्रों सरीखी है।
    --- इस वाक्य की धार देख रहा हूँ ! सत्य !
    @ हिमांशु जी ,
    अरे भाई इस कविता के मूल में वह लेख भी है जिसपर आप
    शीर्षक के हल्केपन की बात कर आये हैं ! एक कचोट है भाई की !
    एक अंतर्द्वंद्व है , जो निकलने निकलने को रहता है , एं वे ही !

    जवाब देंहटाएं
  7. चुपचाप रहता न मुस्कुराता हूँ मैं
    पड़ोसी को देख
    उसी की तरह
    अजनबी हो जाता हूँ मैं....

    अजनबी शहर के अजनबी लोग ...
    दोस्त हैं मगर सतर्क से ...
    क्या कीजियेगा ...समय बदल जो रहा है ...

    जवाब देंहटाएं
  8. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

    जवाब देंहटाएं
  9. .
    .
    .
    लीजिये मैं भी शहरी का फर्ज निभा रहा हूँ... :)

    आज भी ६/१०
    ( यह CBSE के नंबर हैं, आप से थोड़ा और बेहतर की आस रहती है हमेशा!)

    जवाब देंहटाएं
  10. औरों की ज़िन्दगी में सुकूं नहीं प्यारे,
    घूमता हूँ दिनभर,अपनी में लौट आता हूँ मैं ।

    जवाब देंहटाएं
  11. @ एक प्रवीण (त्रिवेदी) रह गए हैं। दो तो आ ही गए। :)
    @ मास्साब
    शिष्य आलसी है। नरक से गुजरते नहीं डरता लेकिन खरोचों पर मरहम लगाने में आलस आता है लिहाजा बच कर चलना चाहता है। कभी कभी सफल भी हो जाता है लेकिन चाल खराब हो जाती है। ... इस रचना को छ्न्द बद्ध करने की सोचा था लेकिन वही आलस ! ..टोकारी के लिए धन्यवाद। अब बहुत कम मास्साब लोग ज़हमत उठाते हैं। लेकिन अपना यह सौभाग्य रहा है कि यहाँ एक नहीं कई मास्साब लोग टोकारी करते हैं। धन धन भाग बहुरे मोरे सजनी . .ध्यान रखूँगा।
    @ प्रवीण पाण्डेय जी
    एक छूट गए पहलू को आप ने सम्मिलित कर दिया। टिप्पणियाँ जब पूरक होने लगें तो गहरा संतोष होता है।

    जवाब देंहटाएं