तुम्हारे खामोश कान
तुम्हारी बहरी जुबान
मुझे चेताते हैं - चुप रहो।
लेकिन शायद तुम्हें नहीं पता
खामोशी की बदबू
ठुस्की से भी खराब होती है।
मुझे बदबू से चिढ़ है।
इसलिए
मुझे चुप नहीं कराया जा सकता !
जब तुम मुझे देखते हो
तो तुम्हारी आँखों से
बास निकलती दिखाई देती है।
मैं नाक सिकोड़ता हूँ
और तुम्हें लगता है कि
मुझे तुम्हारी बात से इत्तेफाक नहीं!
अरे, इत्तेफाक का सवाल तो सुनने के बाद आता है !
मेरे कान बहरे हैं
और
जुबान चलती है।
मेरे यहाँ सीधा हिसाब चलता है।
मैं चिल्लाऊँगा - पेट से
मेरी चिल्लाहट समा जाएगी
तुम्हारी कब्ज ग्रस्त अंतड़ियों में
और तुम टॉयलेट की ओर दौड़ पड़ोगे
चिंतन करने ?
नहीं अपनी सड़ांध निकालने।
तुमने मुझे इसबगोल बना दिया है !
अपने अन्दर की सडाँध को याद रखो
बहुत प्रेम है न तुम्हें उससे?
लेकिन यह भी याद रखो
कि
इसबगोल का यह पैकेट कभी खत्म नहीं होगा !....
सा...
कविता में प्रयुक्त प्रतीक व उपमाएं नए हैं और सटीक भी। ‘अन्दर की सडाँध’ या ’इसबगोल का यह पैकेट कभी खत्म नहीं होगा ’ जैसे वाक्यांशों में निहित भाव विस्तार व नवीन अवधारणाएं हृदयग्राही हैं।
जवाब देंहटाएंइसी को तो कहते हैं न बाईसवीं सदी की कविता गिरिजेश जी !
जवाब देंहटाएंपेट में जाओ तो एक चाकू ले जाना,
जवाब देंहटाएंनिकलने का रास्ता न मिले तो काम आएगा ।
बेहतरीन...बेहतरीन कविता...
जवाब देंहटाएंखुद कविता करने वालों को अक्सर दूसरों की कविताएं बकवासमय प्रलाप ही लगती हैं...
पर यह मेरी अभी के समय की पढ़ी गई सबसे बेहतर और सबसे अधिक मष्तिष्क को विलोड़ने वाली कविताओं में से एक है...
यह सब भी इसीलिए लिखा है कि...
कैसे तो मैं आप तक अपने भावों को पहुंचा पाऊं कि इससे गुजरना मुझ पर किस तरह तारी हुआ है...
भाई वाह गजब आपकी ये कविता २२वी सदी में सुकविता होगी :)
जवाब देंहटाएंईसबगोल बड़े काम की चीज है. बहुत सुन्दर. आभार.
जवाब देंहटाएंआया था ....पढा ....अच्छी लगी....बहुत ज्यादा तो समझ में नही आया ....बस यही लगा की कई मुड़ी तुड़ी किन्तु जुडी हुयी भावनाओ की गुथी हुयी अभिव्यक्ति .......
जवाब देंहटाएंये कहाँ से निकला है? दिमाग से तो नहींये निकला होगा. हा हा :)
जवाब देंहटाएंअरे ओ "कुकविता" के जनक सुकवि जल्दी से इस नाम को पेटेंट करा लो वरना 100 साल बाद हिन्दी साहित्य के इतिहास में कुकविता का यह दौर किसी और के नाम से दिखेगा .. सोचो उस वक्त हमारी तुम्हारी अतृप्त आत्माओं को कितना कष्ट होगा । - पुरातत्ववेत्ता
जवाब देंहटाएंगिरिजेश भाई,
जवाब देंहटाएंक्या आपने ये कविता सरकार को समर्पित की है...जो सब कुछ सुनते हुए भी कुछ नहीं सुनती..
जय हिंद...
किसी एक अनुभव, किसी एक अनुभूति, किसी एक दृश्य- जिस किसी के पीछे पड़ते हो हर जगह उसकी हाजिरी लगाते रहते हो आप !
जवाब देंहटाएंबदबू-बास-सड़ाँध : कोई विकासमान प्रक्रिया है क्या ?
Nahi Pata tha aap ko kabj ki shikayat hai. Baigan kam khaya kariye
जवाब देंहटाएं