ये जमाना मूर्तिमान उलटबाँसी है।
गिद्ध खतम हो गए,
दुष्ट कबूतरों के शहरों पर हमले हैं। ..
बरतन मॉल की रसोई में खड़कते हैं।..
मॉल के सामने सड़क पर
ईंट बिछौना ईंट तकिया डाल
हेल्पर सोते हैं।
राजनीति में नीति नहीं
जन में विद्रोह नहीं
आप जनद्रोहिता की बात करते हैं !
कैसा धर्म कैसा साम्राज्य
?
आज कल के अशोक भी
धर पकड़ के समर तले
जय जय करते हैं।
किसकी?
वही तो !
अरे वही तो पेंच है !
+++++++++++
एक ठो पेंचकस दो भई कोई !
जवाब देंहटाएंअब टिप्पणी पर क्या टिप्पणी करें यह अच्छी टिप्पणी है !
जवाब देंहटाएंआपको देख कर लगता है कि यदि मैं टिप्पणी लिखने में अपने दिल की सुन कर जो मन में आता है लिखता हूं..और भरपूर लिखता हूं..और कोशिश भी यही रहती है कि ..पोस्ट लिखने वाले को उतना ही मजा आये जितना हमें उसकी पोस्ट पढने में आया..और आपकी टीप के तो क्या कहने..
जवाब देंहटाएंअच्छी टिप्पणी है।
जवाब देंहटाएंबड़ा भारी पेंच है...
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी लगी आप की यह कविता, धन्यवाद
जवाब देंहटाएंbhai bharee pench.....
जवाब देंहटाएंसत्य वचन महाराज!
जवाब देंहटाएंचलती को गाड़ी कहें, खरे माल को खोया... (काका कबीर)
राजनीति में नीति नहीं
जवाब देंहटाएंयही तो त्रासदी है
चलिए आप टिपण्णी लिख दिए हैं...!!
जवाब देंहटाएंअब इ रहा हमरा पोस्ट...सम्हालियेगा...!!
टिप्पणी का सौन्दर्यशास्त्र ?
जवाब देंहटाएंबेहतर टिप्पणी-प्रविष्टि ।
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जवाब देंहटाएं.
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गिरिजेश जी,
आपकी यह टिप्पणी यह फिर से साबित करती है कि टिप्पणी लिखने की कला को आप 'साध' चुके हैं।
बेहतरीन कविता...पर पेंच को थोड़ा और खोलिये...आगे फिर कभी...
नकली दूध, नकली घी, नकली तेल, नकली मावा, नकली धावा(रेड) का चल रहा खेल लेकिन सब पचा लेते हम, यही तो पेंच है
जवाब देंहटाएंये जमाना मूर्तिमान उलटबाँसी है
जवाब देंहटाएंगिद्ध खत्म हो गए,
दुष्ट कबूतरों के शहरों पर हमले हैं।...
इन पंक्तियों का पेचोख़म ज़्यादा उलझा हुआ और महत्वपूर्ण है...
गहरी अभिव्यक्ति...
गहरी अभिव्यक्ति...
जवाब देंहटाएंतीन बजे रात जेल के घंटे से आवाज़ आती है
जवाब देंहटाएंएक मालगाड़ी प्रसव वेदना से भरी
किसी स्टेशन पर जाकर ठहरती है
शटर उठा कर एक चोर
एक अमीर की नीन्द में दाखिल होता है
दिन भर कबूतर उड़ाने के बाद
मॉल से अपनी जेबे कटवा कर लौटा
गिरिजेश राव नाम का एक कवि
सूनी आँखों से टी वी के सामने बैठा
नेताओं की अश्लील हरकतें देखता है
नीन्द से जागता है हर रात और बदहवासी मे चीखता है
इनकी तो...
बस भैया अपुन को 60 के ज़माने का अकविता का दौर याद आ गया था सो इतना लिख डाला अब इसे टिप्पणी समझो या कविता ..
:) :)
जवाब देंहटाएंशरद कोकास जी ने तो मस्त तड़का लगाया है।
बहुत बढिया लिखे हैं शरद जी।
साहित्यकार का यही दम है - उसकी "बकवासमय" टिप्पणी बन जाती है पोस्ट और हमारी पोस्ट ही बकवासमय होती है! :-)
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