शनिवार, 10 अक्तूबर 2009

रात

'रात'


ओस को चुपके बताते चलो 
आज बहुत हताश है रात।


पीपल सजे मोद माते कितने
जुगनुओं से कहो 
कि उदास है रात।


ठिठुरन सरगोशी कानों के पास
गर्म साँसों ठहरो,
नहीं आज आस है रात।


दिए बुझ गए तुम आई न आज 
कुहर भोर पहरे
अकेले बहकती काश है रात।


कोई सिसक रहा खाँसियों के पीछे
तनी जीवन मसहरी,
मृत्यु के पास है रात।

11 टिप्‍पणियां:

  1. बिम्ब तो बहुत खास हैं , बाकी कविता झकास है , कहता शरद कोकास है

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  2. शायर की ये लाईनें याद आ गयीं -
    अजब मरहलों से गुजर रहे हैं दीदाओ दिल
    सहर की आस तो है जिन्दगी की आस नहीं ....

    बहुत उम्दा ! आपने मेरी भावनाएं भी मानों
    गिरवी रख ली हैं किसी के जरिये !
    अब तो आगे भी आप के जुल्मों सितम भी सहने होगें !

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  3. "ठिठुरन सरगोशी कानों के पास
    गर्म साँसों ठहरो
    नहीं आज आस है रात।" अदभुत !

    कविता के लिये क्या कहूँ ? यह छन्द लुभा गया । तीन पंक्तियों में तोड़ कर लिखने की अदा खूबसूरत है । पढ़ कर लुत्फ उठा रहा हूँ । कुछ न कहने के लिये माफ करियेगा ।

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  4. मृत्यु, रात, पतझर, बुझे दिये और हेमन्त - आज कितने प्रतीक मिले!
    आज ही उस योगी की कथा पढ़ रहा हूं, जिसके गुरू फलानी जगह हैं चार सौ साल से और उन्होने पानीपत की लड़ाई भी देखी है और प्लासी की भी!
    नश्वरता के क्या मायने? मैं तो अगले तीस साल की क्रियाशीलता की कल्पना करता हूं!
    लिखो बन्धु, खांसियों के परे भी जीवन है!

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  5. घिसा पिटा लेकिन यहाँ कारगर जुमला-
    "क्या बात है"!!

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  6. कोई सिसक रहा खांसियों के पीछे
    तनी जीवन मसहरी
    मृत्यु के पास है रात।

    बहुत खूब.

    चन्द्र मोहन गुप्त
    जयपुर
    www.cmgupta.blogspot.com

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  7. ओस को चुपके बताते चलो
    आज बहुत हताश है रात।

    जीवन मसहरी बखूबी तनी हुई है....
    हताश है...मतलब कि ज़िंदा है आप...

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