गीत
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एक बार और जाल फेंक रे मछेरे!
जाने किस मछली में बंधन की चाह हो।
सपनों की ओस गूँथती कुश की नोक है,
हर दर्पण में उभरा एक दिवा लोक है,
रेत के घरौंदों में सीप के बसेरे,
इस अँधेर में कैसे नेह का निबाह हो?
एक बार और जाल फेंक रे मछेरे!
उनका मन आज हो गया पुरइन पात है,
भिगो नहीं पाती यह पूरी बरसात है,
चंदा के इर्द-गिर्द मेघों के घेरे,
ऐसे में क्यूँ न कोई मौसमी गुनाह हो?
एक बार और जाल फेंक रे मछेरे!
गूँजती गुफाओं में पिछली सौगंध है,
हर चारे में कोई चुंबकीय गंध है,
कैसे दे हंस झील के अनंत फेरे?
पग-पग पर लहरें जब माँग रहीं छाँह हो!
एक बार और जाल फेंक रे मछेरे!
कुमकुम सी निखरी कुछ भोरहरी लाज है,
बंसी की डोर बहुत काँप रही आज है,
यूँ ही ना तोड़ अभी बीन रे सँपेरे,
जाने किस नागिन में प्रीत का उछाह हो!
एक बार और जाल फेंक रे मछेरे!
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यह गीत किशोर वय की मेरी रागमयी स्मृतियों में से एक है। राजकीय इंटर कॉलेज के वार्षिक क्रीड़ा महोत्सव के साथ होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रमों के दौरान इसे पहली बार सुना था। अंत्याक्षरी प्रतियोगिता हुई थी जिसमें फिल्मी गीतों का निषेध था । प्रतियोगियों को कविता, साहित्यिक गीत आदि सुनाने थे - मुखड़ा और एक अंतरा। जब इस गीत को एक छात्र ने स्वर दिया तो हाल में सन्नाटा छा गया और उसे गीत पूरा करने से किसी ने नहीं रोका। सच कहूँ तो जैसा कौशल और स्वरमाधुर्य उस बालक में था वैसा स्वयं कवि के स्वर में नहीं है।
ओस मेरा एक प्रिय बिम्ब है। ओस सरीखे सपनों को जो कि जागरण के चन्द क्षणों के पश्चात ही उड़ जाते हैं, कुश में गूँथना एक बहुअर्थी बिम्ब है। कुश को पवित्र माना जाता है और ओस तो विशुद्ध शुद्ध होती ही है। कवि सपनों को प्रात के क्षणों की उस दिव्यता से जोड़ता है जो अत्यल्प काल में ही मन मस्तिष्क से तिरोहित हो जाती है लेकिन जिसकी स्मृति मन में रच बस जाती है - फिर फिर उभरने के लिये।
रेत के घरौंदे, सीप, अन्धेरा और नेह एक अनुभूतिमय बिंब है। कवि को नेह निबाह में अन्धेरा स्वीकार नहीं। जाने क्यों किसी के रूप की आब से रोशन अन्धेरा मन में आता है और पुन: ओस की बूँद (स्वाती जलद वारि नहीं) का सीप में मोती बन जाना - लगता है जैसे कवि बहुत कुछ कहना चाह रहा था लेकिन छ्न्द बन्ध और टेक की सीमा ने रोक दिया!
चन्द्र को घेरे मेघ और मौसमी गुनाह! कमजोर क्षणों में निषिद्ध आदिम सम्बन्धों के घटित हो जाने की ओर ऐसा मासूम और अर्थगुरु संकेत कम ही दिखता है। ज़रा सोचिये, बरसात हो गई लेकिन मन कमल के पत्ते सा अनभीगा रहा। पर आसमान अभी निरभ्र नहीं हुआ, उग आया चाँद अब उस ओर संकेत कर रहा है। आज क्या हो गया प्रिय तुम्हें? जो होता है, हो जाने दो!
हंस, झील, फेरे, लहरें और छाँह। आप ने ऐसा बिम्ब कहीं और देखा है? फेरों में गति है, लहरों में गति है, पग में गति है लेकिन हर बाढ़ पर छाँह की चाह तो स्थिरता माँगती है! झील तो वहीं की वहीं है, लेकिन बेचारा उड़ता हंस! प्रेम क्या गति और स्थिति की घूर्णन सममिति को साधना नहीं होता? झील की लहरें अनंत हैं लेकिन हंस के फेरे तो अनंत नहीं हो सकते। हंस की सीमा है और प्रेम की त्रासदी भी यही है।
जिन लोगों ने पूरी रात को मधु यामिनी सा जिया हो, वे कुमकुम लाल सी निखरी भोरहरी लाज और तन मन की काँप को समझ सकते हैं। प्रेम का दंश - नागिन का मन अभी लुभने से नहीं भरा। सँपेरे! बीन की धुन न तोड़। प्रार्थना पराती नहीं कोई मादक पराती बजाओ।
एक भोजपुरी गीत 'छोड़ छोड़ कलइया सैंया भोर हो गईल, तनि ताक न अँगनवा अँजोर हो गइल' की स्मृति हो आई है और निराला के 'नैनों के डोरे लाल गुलाल' की भी। इन पर फिर कभी।
और अंत में ...
जाल, मछली और मछेरा। कवि ने इसे आशावादी गीत कहा है लेकिन यह तो पूरी तरह से रागवादी गीत है।
क्या हुआ जो असफल हुये? फिर से लहरों में जाल फेंको न! देह स्वयं नहीं बँधती, उसे बन्धन की चाह बाँधती है।
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यहाँ बुद्धिनाथ मिश्र का एक और गीत :
धान जब भी फूटता है ...