शनिवार, 29 अक्तूबर 2011

न कुछ कह पाया है




मिलने पर तमाम बन्दिशें हाल-ए-दिल पुछवाया है 
देखे भी जो बयाँ न हो उसको अच्छा कहलाया है।

पीछे छूटा लम्बा रस्ता पाँव चले जो दूर तलक 
आगे की राहें मामूली कह कह खुद बहलाया है। 

गठरी की गाँठें मामूली भूल चुका अब खोले कैसे 
दवा बिना सूजे घावों को बस हाथों से सहलाया है।

न पढ़ना मेरी पाती को ऊपर झूपर लख लेना 
जिस सच को कह न पाया आखर आखर झुठलाया है।

घड़ी घड़ी तारीखें बदलें चार घड़ी की ज़िन्दगी
वक्त बेगैरत कठिन नजूमी कौन सही कह पाया है

 मगरूर मसाइल तमाम ज़िन्दगी छ्न्द पड़ गये छोटे हैं
चीख भरी खामोशी पर शायर न कुछ कह पाया है। 

6 टिप्‍पणियां:

  1. वाह वाह....एकदम मन को स्पर्श करती कविता। आनंदम्...आनंदम्।

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  2. घड़ी घड़ी तारीखें बदलें चार घड़ी की ज़िन्दगी
    वक्त बेगैरत कठिन नजूमी कौन सही कह पाया है?

    अच्छॆ भाव, अच्छी लाइनें...
    बहर की गणित थोड़ी गड़बड़ है :(

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  3. एक एक शब्द चीत्कार करते हुये गहरे उतर गया।

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  4. लहर लहर चलती हैं बहरें, भाव अनूठे क्या कहने!

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