सोमवार, 17 अक्टूबर 2011

आज की रात तुम्हें फिर पाना चाहता हूँ।

होठों की नमी के पीछे
दहकती पास प्यास
रेख रेख देख सकता हूँ
छू नहीं सकता - होठ सूखते हैं।

इतने निकट होना कि
साँसें दूर धकेलने लगें
और आँखें जीभ को सोख लें
कह नहीं सकता - होठ फटते हैं।

हवाओं को सहलाता हूँ
अंगुलियों से सुलझाता हूँ
चमकते चन्द रजत गुच्छे
बह नहीं सकता - आँसू रुकते हैं।

बुनता हूँ धागे जो अदृश्य हैं
कि पहना दूँ दिगम्बर तन को
जलती चाँदनी जलन से रूप पर
सह नहीं सकता - भाव बिंधते हैं।

न, वहीं रहो, दूरियाँ सुन्दर हैं
आज की रात बस सुन्दर है
निशा सहमेगी, भटकेगी यामिनी,
पर्याय हो रजनी करेगी राहजनी
कोई चिंता नहीं, दुख नहीं, सुख नहीं
लुटने लुटाने का भय नहीं
इतनी उठान कि उड़ना चाहता हूँ
इतनी थकान कि मरना चाहता हूँ।
आज की रात मैं बच्चे सा सोना चाहता हूँ

कुछ नहीं, खोया कभी नहीं
आज की रात तुम्हें फिर पाना चाहता हूँ। 

6 टिप्‍पणियां:

  1. इतनी उठान कि उड़ना चाहता हूँ
    इतनी थकान कि मरना चाहता हूँ।
    आज की रात मैं बच्चे सा सोना चाहता हूँ

    कुछ नहीं, खोया कभी नहीं
    आज की रात मैं तुम्हें फिर पाना चाहता हूँ।

    सुन्दर भाव!

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  2. बढिया. वैसे ये फोटो किरा नाइटली की है क्या?

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  3. सुन्दर शब्द और सुन्दर भावों से सजी इस रचना के लिए बधाई स्वीकारें

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