शनिवार, 22 अक्टूबर 2011

मुझे नहीं पता...


आयेगा वह दिन।
एक दिन आयेगा॥

पेट पालने को, मुँह में दाने को
देहों के गुह्यद्वार नहीं बिकेंगे
माँ के स्तन से चिपट चूसते शिशु को
दूध की जगह रक्त के क्षार नहीं डसेंगे।
निकले पेट लकड़ी से हाथ पाँव
पुतलों जैसे मिलेंगे खेतों में खड़े
पेट के तुष्टीकरण को आते
मूर्ख खगसमूह को भगाने को।
वे गलियों में नंगे नहीं घूमेंगे।

हवाओं में वह अम्ल नहीं होगा
जो बाहों की मछलियों को गला देता है।
नासा की राह फेफड़ों से होते पैरों में पहुँच
हड्डियों को यक्ष्माग्रस्त बना देता है।
धरती पानी से कभी नहीं लजायेगी
आदमी के पानी के दम हरदम लहलहायेगी।
बंजरता बस रह जायेगी एक शब्द सी
अकाल के साथ सिमटी शब्दकोष में
सपनों की दुनिया में जीते जवानों के भाष्य को।

उस दिन के बाद कोई आत्महत्या नहीं करेगा 
और इन्द्रों के हो जायेंगे आत्मापरिवर्तन 
(हृदय तो उनके पास होते ही नहीं
देह में रक्तप्रवाह के अभाव की पूर्ति 
वे रक्त चूस कर करते हैं)। 
धीमे, सुनियोजित नरमेध यज्ञ 
अवैध घोषित कर दिये जायेंगे
उनके लिये होगा मृत्युदंड - बस। 

मनुष्यों के भाग्य बन्द नहीं होंगे 
वृक्षों के परिसंस्कृत सफेद शवसमूहों में। 
मेज पर फाइलें चलेंगी 
उनके पैरों में लाल फीता बन्धन नहीं होंगे। 
प्रार्थनापत्रों पर टिप्पण हस्ताक्षरों में 
विनम्रता होगी, उनसे स्याही ग़ायब होगी 
वे रोशनाई में लिखे जायेंगे।  

त्याग, शील, लज्जा, ममता, सहनशीलता 
बर्बरता की कसौटी नहीं कसे जायेंगे। 
'घर एक मन्दिर' में नहीं गढ़ी जायेंगी
नित नवीन अश्रुऋचायें, जीवन के क्षण
नहीं होंगे सुलगते धुँआ भरे अनेक हविकुंड। 

'घर में शांति से रह पाना' दुराशा नहीं होगी 
और न उसके लिये नपुंसकता अनिवार्य होगी।
रोटी, कपड़ा और मकान के साथ उत्कोच 
जीने की मूलभूत आवश्यकता नहीं होगा। 
रचनाशीलता नहीं भटकेगी - 
सीवर, पानी और बिजली के ग़लियारों में। 
सूरज को उगने के लिये नहीं रहेगी 
रोज जरूरत नये घोटालों की। 

... वह दिन कवि की मृत्यु का होगा 
पन्नों पर न दुख होगा और न क्रांति की हुँकारें 
न ललकार होगी, न सिसकार होगी 
और न दुत्कार होगी। 

जीवन सुन्दर होगा, प्रेमिल होगा। 
कृतियाँ तब भी रची जायेंगी 
आनन्द के वाक्य तब भी रचे जायेंगे। 
मुझे नहीं पता कि उस युग में वासी उन्हें
कविता कह पायेंगे॥

8 टिप्‍पणियां:

  1. 40;ों
    तुष्टीकरé9

    pata chal hi chayega kavivar.. ye do shayad tankan trutiyan reh gayin hai.. kripya sahi kar lijiye. baki ubal barakrar hai, barakrar rahe...

    dhanyavad

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  2. धन्यवाद unknown (संभवत: पराग जी)। ठीक कर दिया है। इस ब्लॉग में कोडिंग की समस्या हो गई लगती है वरना ऐसे अक्षर तो नहीं आते। टिप्पणी विकल्प बन्द होने की भी शिकायत मिली है जब कि खुला हुआ था।

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  3. अगर यह आपकी मौलिक न होती तो किसी विश्व प्रसिद्ध कवि की अनूदित रचना मान रहा था मैं पढ़ते वक्त

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  4. साहिर के 'वो सुबह हमीं से आयेगी', 'वो सुबह कभी तो आयेगी' और 'ये महलों, ये तख्तों, ये ताजों की दुनिया'

    और

    फैज़ के 'मुझसे पहली सी मुहब्बत'और 'हम देखेंगे (अहम् ब्रह्मास्मि के परवर्ती संस्करण अनलहक और उसके विरोधी इस्लाम मत की मान्यताओं का समाजवादी घालमेल)'

    और

    कुछेक प्रगतिवादी कवितायें।

    इन सबसे साम्य दर्शाती यह रचना उनसे आगे है (यह श्रेष्ठता का दावा या दम्भ नहीं) और उनसे अलग आयामों की बात करती है। 'सपनों की दुनिया में जीते जवानों के भाष्य' और अंतिम दो अनुच्छेदों जिनमें कवि की मृत्यु और सपनीले युग में कविता के अस्तित्त्व पर संशय दर्शाया गया है, पर ध्यान अपेक्षित है।

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  5. आमीन...। जब कमेंट लिखते वक्त उंगलियाँ रूक-रूक जायं समझ न आए कि कैसे तारीफ करूं तो मान लेता हूँ कि कविता मेरी कल्पना से बेहतर है।

    रही बात कवि के मरने की तो कवि नहीं मरेगा। धरती में वह दिन कभी नहीं आयेगा। जब तक जीवन है तब तक कवि है। सब दुख मिटने के बाद भी सुख की पहचान कराने के लिए, दुख जीवित रहेंगे। जो दुःख क्या है यह जानते भी नहीं होंगे वे भी कहेंगे बड़ा दुःख है। इंसान की फितरत है कि वह जिस लेयर में जीता है उससे बड़े लेयर को देखता है और दुःखी होता है। सुख ही सुख होगा तो भी वह कल्पना करेगा कि वहां अधिक सुख है...यहां कम।

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  6. दिन आए न आए, कविता की यात्रा समाप्त हो, ऐसा नहीं लगता।

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