गुरुवार, 29 अक्टूबर 2009

अड़बड़िया कड़बड़

गहन चलो
काला पहन चलो
मन चलो
  उजले कफन चलो।





धंसती है लीक 
बहके कदम चलो 
रस्ते पे वे
पटरी सहम चलो
हँसते हैं गाल
आँखों बहम चलो।


ऊँची उनकी नाक 
रस्ते नमन चलो
पूछे हैं वो
हाले कहन चलो
करनी है बात
जीभे कटन चलो
ना सुनें जो वो
चुपके निकल चलो।


दूरी है क्या 
पाथे बिखर चलो
देखे हैं वे
अन्धे !ठहर चलो
न तलवे जमीन
चप्पल पहन चलो।


गोल गोल दिखते 
नज़रें उठन चलो
सिकोड़ी जो नाक
नजरें झुकन चलो
पापी दिमाग
कोंचे बहम चलो।

adbadiya
शरम का बहम
दिखता अहम चलो
काला पहन चलो
मनचलों !

बुधवार, 21 अक्टूबर 2009

पुरानी डायरी से - 6 : क्या गाऊँ मैं गीत


5 अप्रैल 1993, समय: सन्ध्या 06:45                                                                क्या गाऊँ मैं गीत

मेरे मन के मीत
क्या गाऊँ मैं गीत।


धुएँ में जीता श्मशान
चलती लाशें लोग।
कागज के इन फूलों में
उलझी सारी प्रीत।
क्या गाऊँ मैं गीत ?


उजली रात-तिमिर विहान
अन्धा जीवन भोग !
कितना सुख है शूलों में,
दु:खी बुद्ध हैं भीत।
क्या गाऊँ मैं गीत?


मेरे मन के मीत। 

मंगलवार, 20 अक्टूबर 2009

कुकविता


तुम्हारे खामोश कान
तुम्हारी बहरी जुबान 
मुझे चेताते हैं - चुप रहो।
लेकिन शायद तुम्हें नहीं पता
खामोशी की बदबू
ठुस्की से भी खराब होती है।
मुझे बदबू से चिढ़ है।
इसलिए 
मुझे चुप नहीं कराया जा सकता !


जब तुम मुझे देखते हो 
तो तुम्हारी आँखों से 
बास निकलती दिखाई देती है।
मैं नाक सिकोड़ता हूँ 
और तुम्हें लगता है कि 
मुझे तुम्हारी बात से इत्तेफाक नहीं!
अरे, इत्तेफाक का सवाल तो सुनने के बाद आता है !
मेरे कान बहरे हैं
और 
जुबान चलती है।


मेरे यहाँ सीधा हिसाब चलता है।


मैं चिल्लाऊँगा - पेट से
मेरी चिल्लाहट समा जाएगी 
तुम्हारी कब्ज ग्रस्त अंतड़ियों में 
और तुम टॉयलेट की ओर दौड़ पड़ोगे
चिंतन करने ? 
नहीं अपनी सड़ांध निकालने। 
तुमने मुझे इसबगोल बना दिया है !


अपने अन्दर की सडाँध को याद रखो
बहुत प्रेम है न तुम्हें उससे? 
लेकिन यह भी याद रखो 
कि 
इसबगोल का यह पैकेट कभी खत्म नहीं होगा !....
सा...

शुक्रवार, 16 अक्टूबर 2009

अति लघु













हक है,
सुबह की पहली साँस पर केवल।
उसके आगे
शक है।

मंगलवार, 13 अक्टूबर 2009

एक बकवासमय टिप्पणी

हम यहाँ पर निम्नलिखित टिपियाए हैं: 

ये जमाना मूर्तिमान उलटबाँसी है। 
गिद्ध खतम हो गए, 
दुष्ट कबूतरों के शहरों पर हमले हैं। ..


बरतन मॉल की रसोई में खड़कते हैं।..
मॉल के सामने सड़क पर
ईंट बिछौना ईंट तकिया डाल
हेल्पर सोते हैं।  


राजनीति में नीति नहीं
जन में विद्रोह नहीं 
आप जनद्रोहिता की बात करते हैं ! 


कैसा धर्म कैसा साम्राज्य

आज कल के अशोक भी
धर पकड़ के समर तले 
जय जय करते हैं। 
किसकी?
वही तो ! 
अरे वही तो पेंच है !
+++++++++++


शनिवार, 10 अक्टूबर 2009

रात

'रात'


ओस को चुपके बताते चलो 
आज बहुत हताश है रात।


पीपल सजे मोद माते कितने
जुगनुओं से कहो 
कि उदास है रात।


ठिठुरन सरगोशी कानों के पास
गर्म साँसों ठहरो,
नहीं आज आस है रात।


दिए बुझ गए तुम आई न आज 
कुहर भोर पहरे
अकेले बहकती काश है रात।


कोई सिसक रहा खाँसियों के पीछे
तनी जीवन मसहरी,
मृत्यु के पास है रात।

शुक्रवार, 9 अक्टूबर 2009

पुरानी डायरी से -4 : काम कविता

13 दिसम्बर 1993, समय: ________                               '____ के लिए' 
  
कभी कभी सोचता हूँ
कितना सुन्दर होगा तुम्हारा शरीर !
जिसका प्रगाढ़ आलिंगन करते हैं तुम्हारे वस्त्र 
और बातें करते हैं तुम्हारे अंग अंग से 
(मुझे ईर्ष्या होती है !)
कैसा होगा वह शरीर !


तुलसी के पत्ते पर
प्रात:काल में चमकती 
जुड़वा ओस की बूँदे
धवल पीन युगल वे स्तन
क्या वैसे ही होंगे ?


सुदूर फैला सपाट मैदान
सूना सा शांत सौन्दर्य 
क्षितिज पर कहीं पोखरे का आभास।
तुम्हारा नाभिस्थल ऐसा ही होगा।


हिमश्वेत उन्नत श्रृंगों के बीच 
बहती विद्रोही पहाड़ी नदी
परिपूर्ण यौवन वेगमय प्रवाह।
हाँ ऐसा ही होगा तुम्हारा जघन स्थल।
....
कभी कभी सोचता हूँ
कितना सुन्दर होगा तुम्हारा शरीर !
जिसका प्रगाढ़ आलिंगन करते हैं तुम्हारे वस्त्र ।
कभी कभी मैं सोचता हूँ।