शरद की प्रात शीतल ओसमयी
चूमा है जगते ही बासी मुँह
धरा ने निठुराये आकाश को
ठिठुरन है या है तन में झुरझुरी
प्रेम बैठता पगता भीनता सा
उड़ेलता कोई माटी के नवघट इक्षुरस
मिचमिची आँखें बदनपीर राम राम
टूटती अँगड़ाइयाँ सन अंग अंग
लिप्त हैं दोनों आदिम आराधना में
सुन्दर
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