शुक्रवार, 4 अक्टूबर 2013

शरद की प्रात

शरद की प्रात शीतल ओसमयी
चूमा है जगते ही बासी मुँह
धरा ने निठुराये आकाश को

ठिठुरन है या है तन में झुरझुरी
प्रेम बैठता पगता भीनता सा
उड़ेलता कोई माटी के नवघट इक्षुरस

मिचमिची आँखें बदनपीर राम राम
टूटती अँगड़ाइयाँ सन अंग अंग
लिप्त हैं दोनों आदिम आराधना में   

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