रविवार, 18 जुलाई 2010

किस काम की ये गदराई ?

नीले बितान पर 
बदरी है छाई 
दई के मुँह पोत रही 
कालिख करुवाई । 
तरबतर पसीने 
जोत रही
खेतों में 
सूखी कमाई 
बूढ़ी है माई।  

पास के शहर में, टिन के शेड में 
परेशाँ लहना* है 
छा पाए कैसे, 
छ्प्पर जो महँगा है  
ग़जब उमस है भाई ! 
रोटी की भाप
हाथ आग है लगाई 
बड़ी  गरुई महँगाई। 

चूल्हे को झोंक झौंक, 
बालों को रोक टोक 
सिसके मैना है 
अम्मा की बात पर 
देवर की तान पर 
माखे नैना हैं 
न टूटे सगाई ! 
बाबा ने बियह दिया 
कसाई संग गाई ।  

छोड़ो बदरी शर्मी 
निकल नाचो बेशर्मी 
जो झड़ पड़े 
बरस पड़े
झमाझम चउवाई।
हुलसे खेतों में माई 
भागे लहना से महँगाई 
मिटे मैना की करुवाई 
घोहा घोहा मूँठ मूँठ 
झरे छर छर कमाई 

अब बरसो भी,
किस काम की ये गदराई ?
* लहना - वृद्धा के बेटे का नाम 

8 टिप्‍पणियां:

  1. गदराई सब उड़ जायेगी, अब पानी बरसा भी दो,
    यौवन को पिघला डालो, जन अनमन हरषा भी दो।

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  2. अइसन गदराई त माल कल्चर में ही संभव है बंधु :)

    माल कल्चर में भी गदर-गदर वाली चहली-चहली होती है..... शारिरिक श्रम न करने वाली भीड़ ....गदर-गद ...थुलथुल हो जाने पर श्रम हेतु Treadmill खरीदने पहुँचती है...वर्क आउट करने हेतु सामान खरीदने पहुंचती है.....।

    लेकिन इस गदराई का क्या फायदा जो कोई प्रॉडक्टिव न हो। आठवीं या नौवी में शायद विनोबा जी का ही कोई एक लेख पढ़ा था जिसमें कहा गया था कसरत ऐसी हो कि उससे कुछ उत्पादन हो....कुदाल उठे तो अनाज की पैदावार हो....कसरत की कसरत.....फायदे का फायदा....।

    लेकिन माल कल्चर में यह सब संभव नहीं है...एक तरह की यह श्रम का डायवर्जन ही है। बेफिक्र गदराई।

    लगता है टॉपिक से हट गया हूँ :)

    कविता सुंदर है...एकदम देसी महक लिए हुए...। बादलों से कवि भाव से जिस तरह उनकी गदराई पर तंज कसा है वह मनभावन लगा।

    सुंदर कविता।

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  3. खूब कलम चलती है आपकी। सतीश जी की बात कविता में नहीं ढूँढ पाए हम।

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  4. शीर्षक देखने के बाद सतीशजी जो कह रहे हैं वैसा ही कुछ सोच के हम पढने आये थे :)

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  5. अब बरसो भी,
    किस काम की ये गदराई
    वाह

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  6. अद्भुत ध्वनि है इस कविता में ..तुक मे कहूँ तो बहुत बहुत बधाई ।

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  7. कविता में गदराई शब्द से कई बातों का बोध हो रहा है -जैसे गदराई जवानी भी!

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