शुक्रवार, 16 जुलाई 2010

बेढंगा

ये डण्डे का फंडा है
आदमी रहता चंगा है।

डंडे से भौकी पिटवाओ
डंडे को तेल लगाओ
डंडा कभी न मन्दा है,
मालिक इसका अन्धा है।

डंडा पाते नेता लोग
उलटी करते नेता लोग
चाटे उसको जन्ता है
डंडा बड़का बंका है।

डंडे ने तेल पेरवाया
कोल्हू से जीवन घबराया
 साँड़ हुए सब बैला हैं
अँड़ुवा भर भर थैला है।

डण्डे ने पारक बनवाया
खेतों से सब मेंड़ उड़ाया
चलती उन पर लैला हैं
पाँव में उनके छैला हैं।

डंडा नाचे चौराहे पर
आँखें फूटीं चौराहे पर
लुटता जन जन अन्धा है
डण्डा माँगे चन्दा है।

11 टिप्‍पणियां:

  1. गज़ब है राव साहब , बिलकुल बाबा नागार्जुन के अंडे के फण्डे के बराबर लग रहा है यह डंडे का फंडा

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  2. इसमें का शक ..अपने नाम को चरितार्थ करती हुई कविता...
    :(

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  3. गज़ब! शरद कोकास से सहमत. मुझे भी बाबा नागार्जुन ही याद आये.

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  4. जन्ता है ...
    या जनता है ...

    खुद पर ही शक हो रहा है क्यूंकि आपकी वर्तनी में अशुद्धि असंभव सी बात है ..

    डंडा आखिर डंडा है ...कहानी के बाद कविता में भी रंग दिखा रहा है ती है ..

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  5. @ वाणी जी,
    नुक्कड़ नाटकों में गाए जाने वाले गीतों की तर्ज पर इसे रचा है। जनता धुन पर बैठ नहीं रही थी, इसलिए उसका अंग भंग करना पड़ा। डण्डा इतना तो कर ही सकता है। :)
    वैसे जनता को जन्ता बोलने वाले बहुत मिलेंगे।

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  6. अच्छा हुआ आपने बता दिया कि तर्ज नुक्कड़ नाटको वाली है.......वरना मैं किसी और धुन में पढ़ रहा था कविता......नुक्कड़ अंदाज में तो खूब फब रही है कविता।

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  7. .
    .
    .

    "डंडा नाचे चौराहे पर
    आँखें फूटीं चौराहे पर
    लुटता जन जन अन्धा है
    डण्डा माँगे चन्दा है। "


    अच्छा डंडे का फंडा है
    कायल हरएक बंदा है...

    आभार!


    ...

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  8. "डण्डे ने पारक बनवाया
    खेतों से सब मेंड़ उड़ाया
    चलती उन पर लैला हैं
    पाँव में उनके छैला हैं। "

    वाह रे डण्डे के खेल ! गज़ब!

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