महरूम आफताब से है दयार कोई,
तारीकी में ढूँढ़ता कूचा-ए-यार कोई !
मजा लिया बहुत दोस्ती के बोसे में,
चन्द दिन दुश्मनी रहे गुजार कोई।
खुश है पतझड़ में बहेलिया बहुत,
जाल उसकी फँसी है बहार कोई।
नशेड़ी आँखें संग बिखरी जुल्फों के,
बुलावा भेजो जो दे अब सँवार कोई।
खामोशी सुकूँ नहीं न अश्फाक है,
थकी समा में भटकती पुकार कोई।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें