शुक्रवार, 12 अप्रैल 2019

हिन्दी 'कबी', जिसे न व्यापे जगत गति...

जिसे न व्यापे जगत गति, मत्त सदा वह बहता है। 
आग लगी जो गाँव में, पर्याय अनिल वह पढ़ता है। 
गाता है जिस पर बसन्त में, छिप कर सुख चैन से,
आम के पतझड़ में कोयल, कौवों की बात करता है।
ज्ञान आलोक से जिसके, चौंधियाती आँखें सबकी,
मन का काला श्याम कह, भजन कृष्ण के रचता है।
बजते हैं मृदङ्ग जब भी, अस्तित्व रण के सम्मान के,
नायक बता कर्कश 'कबी', मधु रागिनियाँ गढ़ता है।
वह समूह जो बच गया, हताहत कवचों के उद्योग से,
रच रच कुण्डलियाँ जात की, त्रिकालदर्शी बनता है। 

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