रविवार, 15 अप्रैल 2012

खन खन सिक्कों जैसा।


मैं पंखों के रंग भरे कंटूर दिखाता रहा
वह पिजरे का दाम मोलाता रहा। 
सौदे के बाद बोला आप की बातें भी कविता होती हैं।

उस दिन से मैं अर्थ का अर्थ करने में लगा हूँ 
वह प्रसन्न है कि पाखी बोलता है - खन खन सिक्कों जैसा।

3 टिप्‍पणियां:

  1. हर बोलने वाले के लिए एक पिंजरा तय है यहाँ...

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  2. बेहतरीन!

    गागर मे भावों का अधाह सागर भर दिया आपने। हमारी बातों का शेष दुनियाँ के लिये बस यही मोल है..आपकी बातें तो कविता जैसी होती है ! इसके आगे समझना ही नहीं चाहते।

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