जनवरी से लेकर दिसम्बर तक
छत और दीवारें मय तीन गुम्बद ज़िन्दा हैं।
12 बजे से लेकर 12 बजे तक ज़िन्दा हैं,
मसें भीगती जवानी से लेकर हँसिया हथौड़ा बुढ़ाई तक जिन्दा हैं,
विभाग की राजनीति से लेकर दीवार की क्रांति तक जिन्दा हैं,
सँड़ास के वेग से प्रोस्टेट के संकोच तक जिन्दा हैं,
महीने के उन खास दिनों से लेकर निश्चिंत मुक्ति तक ज़िन्दा हैं।
मुझे आश्चर्य होता है कि बिखरी जीवन्तता अथाह
बहती है नालों में, बजबजाती है नालियों में -
फिर भी!
फिर भी!!
यह देश मरता क्यों जा रहा है?
कितना बड़ा मकबरा चाहिये -
इन जीवंत आत्माओं को दफनाने को क़यामत तक?
कितना बड़ा??
सब आँकड़े उफान पर हैं, देश गर्त में है।
जवाब देंहटाएंज्यों ज्यों डूबे श्याम रंग त्यों त्यों उज्ज्वल होय।
जवाब देंहटाएंजनवरी से लेकर दिसम्बर तक - शोक ही शोक! क्या कहूँ ... -वितायें समझ आया।
जवाब देंहटाएंहम्म!
जवाब देंहटाएं