इस रात रक्त उतर आया है आँखों में
लाल डोरों को गारने निकले दूर सात घोड़े
क्यों न तब तक सेज की सवारी कर लें?
मालूम है कि तुम्हें दूर जाना है
मालूम है कि यह चहन बेगाना है
क्या कहूँ जो इतने दिन बाद आई हो ?
लबों पर लजाये हर्फ सी फड़फड़ाई हो
अब चाँदनी नहीं खिलखिलाहटों के साये हैं।
न भूला चाहते चुम्बन चह चह
न भूला हाथों को हटा रखाते रह रह
न भूला कपोलों को सटाते सह सह
न भूला ताप को दबाते नह नह
पाप और पुण्य साथ नग्न नहाये हैं।
क्यों पाखण्ड देह को क्षुद्र कह कर?
लिपटना क्यों वर्जना की साँस भर कर?
नहीं उफान अब वह तो क्या हुआ?
समय दाह पिघला अयस ठहरा हुआ
तड़प की धार छौंक छन छनछनाये है।
लिपटो अंग अंगना कि मुझे पूरी करना
तुम्हारी वह अधूरी रचना -
देह उत्सव पिघले शरीर
स्वेद कण कपूर बन जल रहे तीर तीर ...
देह उत्सव पिघले शरीर
जवाब देंहटाएंस्वेद कण कपूर बन जल रहे तीर तीर ...
अद्भुत शब्द रचना।
जवाब देंहटाएंवाह क्या बात है...!
जवाब देंहटाएंस्वेद कण कपूर बन जल रहे तीर तीर..