शुक्रवार, 26 अगस्त 2011

छ्न्दसा

इस रात रक्त उतर आया है आँखों में 
लाल डोरों को गारने निकले दूर सात घोड़े 
क्यों न तब तक सेज की सवारी कर लें?

मालूम है कि तुम्हें दूर जाना है
मालूम है कि यह चहन बेगाना है 
क्या कहूँ जो इतने दिन बाद आई हो ? 
लबों पर लजाये हर्फ सी फड़फड़ाई हो 
अब चाँदनी नहीं खिलखिलाहटों के साये हैं। 

न भूला चाहते चुम्बन चह चह
न भूला हाथों को हटा रखाते रह रह 
न भूला कपोलों को सटाते सह सह 
न भूला ताप को दबाते नह नह
पाप और पुण्य साथ नग्न नहाये हैं।  

क्यों पाखण्ड देह को क्षुद्र कह कर?
लिपटना क्यों वर्जना की साँस भर कर?
नहीं उफान अब वह तो क्या हुआ?
समय दाह पिघला अयस ठहरा हुआ
तड़प की धार छौंक छन छनछनाये है।

लिपटो अंग अंगना कि मुझे पूरी करना 
तुम्हारी वह अधूरी रचना - 
देह उत्सव पिघले शरीर 
स्वेद कण कपूर बन जल रहे तीर तीर ...  

3 टिप्‍पणियां: