बुधवार, 31 अगस्त 2011

अछ्न्द संग

शब्द चुप हैं कि उनकी जुबाँ काट ले गया कोई
मन में अन्धेरा है भावों की परछाइयाँ हैं गुम 
कुछ लगता ही नहीं कि वजूद हुआ दफन कहीं 
ऐसे में कैसे कह दें कि चहुँ ओर खलबली है? 


शांति है, स्तब्ध हैं सब गुमसुम अपने काम में 
बैठा लिया है संतुलन सफल स्याह ने शुभ्र से 
दिन कटने हैं, कटते हैं आराम से बिला वजह 
जिन्दगी बिला वजह, वक़्त बिला वजह बेवजह। 


शोर उठते हैं, उठते रहेंगे कि उठना है काम उनका 
क्या पड़ी है तुम्हें भागने की पीछे करो काम अपना ?
ये दुनिया है, ऐसी ही है, थी और रहेगी पसरी ऐसी
जो गुस्सा है, थूको पीकदान में, इसकी बखत इतनी।


चुप हूँ सोचता कि दिमाग जिन्दा खुराफात जिन्दा 
जिन्दा यूँ ज्यों जमीन में कसमसाता केंचुआ 
जब होंगी बारिशें और बिलों में भरेगा ताजा पानी 
निकल रेंगने कुचल जाने को करेगा मजबूर पानी।


पानी जब घुसता है ले हवाई बुलबुले बिलों में
हवस दहके उमसते हैं बीज फूटें अंकुर दिलों में 
मैं चुप काम करूँ अपना जमीन को छ्लनी बना 
मैं दफन नहीं रेंगता सुनता हूँ आहटें खलबली की। 

6 टिप्‍पणियां:

  1. :) हाँ, स्टाइल भर।
    वरना कहाँ उनके संस्कृत छ्न्द सहज वर्ण वृत्त और कहाँ ऐसी अछ्न्द संगई!
    आप का टिप्पणी करना बहुत सुखद रहा।

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  2. बिलकुल अनूठी गिरिजेश टाईप -अतुलनीय !

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  3. हाँ, अजब सी शान्ति छायी है, आँधी के पहले की कि बाद की।

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  4. वाह!
    यही चाहिए था, और यहीं मिल सकता था।
    :)

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  5. बिलकुल अनूठी कवितायेँ..... एक नया स्वाद.....!!!!

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