मंगलवार, 12 अप्रैल 2011

ढाई आखर अब भी अधूरे हैं।

मैं - भर गया है मन का ड्राफ्ट कक्ष,
तुम - दो मीठे बोल तो फिर भी न बोले! 
अधरों की काँप - ढाई आखर अब भी अधूरे हैं। 


तुम - संगिनी की आँखों में झाँकते मुझे याद आओगे। 
मैं - उलटबासियाँ वास्तविक नहीं होतीं। 
दोनों चुप, मौन मुखर - विरोधाभासों में कुछ भी 'आभासी' नहीं होता। 


मैं - आज तुम्हारी साँसें अलग सी महकती हैं ।
तुम - आज देह पुष्पित योजनगन्धा, भर लेना साँस भर भर। 
दोनों चुप, आँखें अटकी एक साथ - झूमते निर्गन्ध पुष्पित सदाबहार पर।


तुम - तुम्हारे लिये रोटियाँ गढ़ने की मशीन नहीं होना मुझे! 
मैं - सारी बुनियादी बातें बस होती हैं, गढ़ना नहीं होता उन्हें। 
छलछल तुम - "बड़े छलिया हो!", मनबढ़ मैं - "यूँ ही नहीं पकते गेहूँ के खेत!"      
.... 
.... 

ढाई आखर अब भी अधूरे हैं। 

     

2 टिप्‍पणियां:

  1. ढाई आखर ढाई दशक के बाद भी अधूरे ही रहेंगे, न जाने कैसे लिखे गयें हैं?

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  2. !!!
    छलछल, मनबढ़ ..सब स्वर किन्तु फिर भी अधूरे ढाई आखर।

    सुन्दर, बहुत सुन्दर।

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