मैं - भर गया है मन का ड्राफ्ट कक्ष,
तुम - दो मीठे बोल तो फिर भी न बोले!
अधरों की काँप - ढाई आखर अब भी अधूरे हैं।
तुम - संगिनी की आँखों में झाँकते मुझे याद आओगे।
मैं - उलटबासियाँ वास्तविक नहीं होतीं।
दोनों चुप, मौन मुखर - विरोधाभासों में कुछ भी 'आभासी' नहीं होता।
मैं - आज तुम्हारी साँसें अलग सी महकती हैं ।
तुम - आज देह पुष्पित योजनगन्धा, भर लेना साँस भर भर।
दोनों चुप, आँखें अटकी एक साथ - झूमते निर्गन्ध पुष्पित सदाबहार पर।
तुम - तुम्हारे लिये रोटियाँ गढ़ने की मशीन नहीं होना मुझे!
मैं - सारी बुनियादी बातें बस होती हैं, गढ़ना नहीं होता उन्हें।
छलछल तुम - "बड़े छलिया हो!", मनबढ़ मैं - "यूँ ही नहीं पकते गेहूँ के खेत!"
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तुम - दो मीठे बोल तो फिर भी न बोले!
अधरों की काँप - ढाई आखर अब भी अधूरे हैं।
तुम - संगिनी की आँखों में झाँकते मुझे याद आओगे।
मैं - उलटबासियाँ वास्तविक नहीं होतीं।
दोनों चुप, मौन मुखर - विरोधाभासों में कुछ भी 'आभासी' नहीं होता।
मैं - आज तुम्हारी साँसें अलग सी महकती हैं ।
तुम - आज देह पुष्पित योजनगन्धा, भर लेना साँस भर भर।
दोनों चुप, आँखें अटकी एक साथ - झूमते निर्गन्ध पुष्पित सदाबहार पर।
तुम - तुम्हारे लिये रोटियाँ गढ़ने की मशीन नहीं होना मुझे!
मैं - सारी बुनियादी बातें बस होती हैं, गढ़ना नहीं होता उन्हें।
छलछल तुम - "बड़े छलिया हो!", मनबढ़ मैं - "यूँ ही नहीं पकते गेहूँ के खेत!"
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ढाई आखर अब भी अधूरे हैं।
ढाई आखर ढाई दशक के बाद भी अधूरे ही रहेंगे, न जाने कैसे लिखे गयें हैं?
जवाब देंहटाएं!!!
जवाब देंहटाएंछलछल, मनबढ़ ..सब स्वर किन्तु फिर भी अधूरे ढाई आखर।
सुन्दर, बहुत सुन्दर।