शुक्रवार, 8 अप्रैल 2011

मघवा! तुम छोड़ो सिंहासन


धरा! घहर, लहर! न ठहर
पटक लहर, पटक कहर
लपक दामिनि दौड़े नभ
मघवा ** छोड़े अब सिंहासन।
कह दो न कोई दधीचि अब
देहदान के बीते युग
निपटेंगे वृत्र से स्वयं हम
मघवा! तुम छोड़ो सिंहासन।

भ्रष्ट तुम, तुम भ्रष्टभाव, सहना नहीं शाश्वत अभाव
गढ़ने को अब नूतन प्राण, देखो पिघले गन्धर्व पाँव
पौरुष ने छेड़ा राग काम, धरा विकल नव गर्भ भार
लेंगे नवसंतति पोस हम, 
मघवा! तुम छोड़ो सिंहासन

नवजीवन अन्धड़ ताप तप
फैली ज्योतिर्मय आब अब
निषिद्ध कराह, फुफकार अब
बुझी यज्ञ की आग अब
ढलका धूल में सोम सब
भूले अर्चन के मंत्र हम
अमर नहीं अब मर्त्य तुम
मघवा! तुम छोड़ो सिंहासन।
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** मघवा - इन्द्र, देवताओं का राजा 

6 टिप्‍पणियां:

  1. सहना नहीं शाश्वत अभाव

    यही उभार कर रखते हैं भ्रष्टाचारी।

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  2. कवि के कहने मात्र से वे सिंहासन छोड़ देगें :)

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  3. कैसे छोड़ू मैं सिंहासन?

    जीवन भर सीखा अनुशासन
    मानूँ मैं मालिक का शासन
    कर सकूँ न खुद का निष्कासन
    जब है दस जनपथ का प्रहसन
    मेरा मन डोले, डोले आसन
    जब पढ़ूँ लिखित सा अभिभाषन
    चौथेपन में जीवन नासन
    हा दैव, न छू्टे सिंहासन...

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  4. ओजस्वी! ललकार के रस से सींचती कविता

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  5. मघवा रोए हे माई
    लागता हमके सब खाई!
    करे धरे और सभी
    भरे बदे हमहीं बाई!

    का सच्चो छोड़ी सिंहासन ?

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