रविवार, 3 अप्रैल 2011

सुबह का झरना, हमेशा हँसने वाली औरतें



रचयिता - बशीर 'बद्र'


सुब्ह का झरना, हमेशा हँसने वाली औरतें
झुटपुटे की नद्दियाँ, ख़ामोश गहरी औरतें
मौतदिल कर देती हैं, ये सर्द मौसम का मिज़ाज
बर्फ़ के टीलों पे चढ़ती धूप-जैसी औरतें
सब्ज़, नारंगी, सुनहरी, खट्टी-मीठी लड़कियाँ
भारी ज़िस्मों वाली, टपके आम-जैसी औरतें
सड़कों, बाज़ारों, मकानों, दफ्तरों में रात-दिन
लाल-पीली, सब्ज़-नीली, जलती-बुझती औरतें
शह्र में एक बाग़ है और बाग़ में तालाब है
तैरती हैं उसमें सातों रंग वाली औरतें
सैकड़ों ऐसी दुकानें हैं, जहाँ मिल जायेंगी
धात की, पत्थर की, शीशे की, रबड़  की औरतें

मुंजमिद(1) हैं, बर्फ में कुछ आग के पैकर अभी 
मक़बरों की चादरें हैं, फूल-जैसी औरतें
उनके अन्दर पक रहा है वक्त का आतशफ़शाँ(2)
किन पहाड़ों को ढके हैं, बर्फ़-जैसी औरतें
आँसुओं की तरह तारे गिर रहे हैं अर्श से
रो रही हैं आसमानों-सी अकेली औरतें
ग़ौर से सूरज निकलते वक्त देखो आसमाँ
चूमती हैं किसका माथा उजली-लम्बी औरतें
फाख्ताएँ, तितलियाँ, मछली, गिलहरी, बिल्लियाँ
ज़िन्दगी में आयें अपनी कैसी-कैसी औरतें
सब्ज़ सोने के पहाड़ों पर क़तार अन्दर क़तार
सर से सर जोड़े खड़ी हैं लम्बी-लम्बी औरतें
इक ग़ज़ल में सैकड़ों अफ़साने, नज़्में और गीत 

इस सरापे में घुसी हैं कैसी-कैसी औरतें
वाक़ई दोनों बहुत मज़्लूम हैं, नक़्क़ाद
(3) और
माँ कहे जाने की हस्रत में सुलगती औरतें

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(1) जमे हुये 
(2) आग उगलने वाला, ज्वालामुखी
(3) आलोचक 

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