उमसा दिन बीता बाँचते चीखते अक्षर
लिखूँ क्या इस शाम को नज़्म कोई
जो दे दिल को सुकूँ और समा को आराम
चलता रहेगा खुदी का खुदमुख्तार चक्कर
चढ़े कभी उतरे, अजीयत धिक चीख धिक।
कालिखों की राह में दौड़ते नूर के टुकड़े
बहसियाने रंग बिरंगे चमकते बुझते
उनके साथ हूँ जो रुके टिमटिमाते सुनते
चिल्ल पों में फुसफुसाते आगे सरकते
गोया कि हैं अभिशप्त पीछे छूटने को
इनका काम बस आह भरना औ' सरकना।
हकीकत है कि मैं भी घबराता हूँ
छूट जाने से फिर फिर डर जाता हूँ
करूँ क्या जो नाकाफी बस अच्छे काम
करूँ क्या जो दिखती है रंगों में कालिख
करूँ क्या जो लगते हैं फलसफे नालिश -
बुतों, बुतशिकन, साकार, निराकार से
करूँ क्या जो नज़र जाती है रह रह भीतर -
मसाइल हैं बाहरी और सुलहें अन्दरूनी
करूँ क्या जो ख्वाहिशें जुम्बिशें अग़लात।
करूँ क्या कि उनके पास हैं सजायें-
उन ग़ुनाहों की जो न हुये, न किये गये
करूँ क्या जो लिख जाते हैं इलजाम-
इसके पहले कि आब-ए-चश्म सूखें
करूँ क्या जो खोयें शब्द चीखें अर्थ अपना
मेरी जुबाँ से बस उनके कान तक जाने में?
करूँ क्या कि आशिक बदल देते हैं रोजनामचा-
भूलता जाता हूँ रोज मैं नाम अपना।
सोचता रह गया कि उट्ठे गुनाह आली
रंग चमके बहसें हुईं बजी ताली पर ताली
पकने लगे तन्दूर-ए-जश्न दिलों के मुर्ग
मुझे बदबू लगे उन्हें खुशबू हवाली
धुयें निकलते हैं सुनहरी चिमनियों से
फुँक रहे मसवरे, प्रार्थनायें और सदायें।
रोज एक उतरता है दूसरा चढ़ता है
जाने ये तख्त शैतानी है या खुदाई
उनके पास है आतिश-ए-इक़बाली
उनके पास है तेज रफ्तार गाड़ी
अपने पास अबस अश्फाक का पानी
चिरकुट पोंछ्ने को राहों से कालिख
जानूँ नहीं न जानने कि जुस्तजू
वे जो हैं वे हैं ज़िन्दा या मुर्दा
ग़ुम हूँ कि मेरे दामन में छिपे कहीं भीतर
ढेरो सामान बुझाने को पोंछने को
न दिखा ऐसे में पीरो पयम्बर से जलवे
सनम! फनाई को हैं काफी बस ग़म काफिराना।
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शब्दार्थ:
उफक - क्षितिज; समा - समय; अजीयत - यंत्रणा; बुतशिकन - मूर्तिभंजक; अग़लात - ग़लतियाँ; आली - भव्य, सखी; इक़बाल - सौभाग्य; अबस - व्यर्थ; अश्फाक - कृपा, अनुग्रह; फनाई- विनाश, भक्त का परमात्मा में लीन होना