गुरुवार, 31 मार्च 2011

कहीं से शुरू करूँ, वो तुम तक पहुँच जाती है

सर्च के 'फरमान' में जोड़ देना 'तुगलकी'
ईश्वर तब भी मिलेगा - कुछ अधिक ही। 
वह योगी अब नहीं रहा जो गाया करता था 
"मोको कहाँ ढूँढ़े रे बन्दे! मैं तो तेरे पास में"।

बहुत कष्ट होता है तुम्हें बैन करते हुये यार!
तुम अब ठीक से पढ़ते नहीं या मैं ठीक लिखता नहीं। 
बहुत दिनों से पैक रखा है दीवान में बन्द गिटार
बच्चा अब बिना संगीत के ही झूम लेता है।  

नर्म गर्मी मेरी पीठ पर अब सवार होती नहीं 
हाथों पर अब जुल्फों के फेरे न अश्कों के घेरे।
रिपेयर में गया था कविताओं भरा लैप टॉप 
कमबख्तों ने कीबोर्ड ही बदल दिया।

चुम्बन में अधर अब बहकते नहीं, न ढूँढ़ते हैं 
दरकार जिसकी थी वह चाहत मिली भी नहीं
यह बात और है कि साँसें धौंकनी हो चली हैं 
सलवटें नहीं रहीं सदानीरा, पठारी नदी हो गई हैं।

कहते हैं जवानी चाँदनी सी मद्धम होती जाती है
ठहराव आता है, जिन्दगानी उलझती जाती है 
क्या करूँ, जब भी करता हूँ समझदारी की बात
कहीं से शुरू करूँ, वो तुम तक पहुँच जाती है।    

गुरुवार, 24 मार्च 2011

कच्च, कच्च?...हाँ जी, सच्च सच्च।

बच्चे गये स्कूल 
और घर में रह गये 
मैं, तुम और 
छ: घड़ियों की कच्च...कच्च... 
घड़ियाँ तेज नहीं भागतीं 
चाहे जितनी घड़ियाँ लगा लो। 
समय की अपनी मर्यादा है।

इतने वर्षों में एक बदलाव हुआ है
चाभी वाली घड़ी डायनासोर हो गई  
लिहाजा एक सेकेंड में 
तीन बार की टिक टिक तेज रफ्तारी भी गई। 
अब डिजिटल का जमाना - 
एक बार में एक सेकेंड - कच्च!
नो टिक टिक भागमभाग। 
पर 
जिन्दगी भागमभाग 
तेज रफ्तार हो गई तीन गुनी। 

तो ऐसे कंफ्यूजन में 
जब कि तनहाई है 
और ऑफिस जाने में अभी टाइम है - 
क्यों न कुछ कच्च कच्च चुरा कर रख लें? 
इस खतरे को उठा कर भी 
कि दाल जल जायेगी
या दूध फफा जायेगा ... 

ये सजोई गई चोरियाँ 
बहुत काम आयेंगी 
तब जब बच्चे अपने अपने घर की 
कचकच ..उफ! .. कच्च कच्च में बीजी होंगे 
और डिजिटल घड़ियों में समय ठहर जायेगा।

बैटरी बदलने को भी किसी को बुलाना होगा 
वह जब तक नहीं आयेगा 
समय होगा हमारा ग़ुलाम। 
उस ठहरे दौर में चोरी की पोटली खोलेंगे 
तुम एक कच्च को लपक कर हँसना 
और मैं दूसरे को सहलाते 
आज की जली दाल याद करूँगा- 
दो बच्चों की ठिठोली।

इस चोरी में एक स्वार्थ भी है - 
जली कटी को बचाने का। 
पोटली के खिलवाड़ में 
जली कटी न कही जायेगी 
और न सुनी जायेगी। 
वह रह जायेगी 
हमारी रूहों में 
सुरक्षित। 
और हम 
इश्क़ के माइक्रोओवन में 
पकी खिचड़ी खा कर जीते जायेंगे - 
जलने का कोई डर नहीं। 

मैं जानता हूँ 
तुम हँसोगी और पूछोगी -  
रूह की जली कटी का क्या करेंगे?
उत्तर यह है प्रिये! 
कि 
मरने के बाद 
ईश्वर का करने को हिसाब 
ये जली कटी काम आयेंगी। 
वह लजायेगा 
और 
उन्हें ले कर रख लेगा अपने पास। 
अगले जन्म में 
यानि कि 
सात जन्मों के अगले चक्र में 
हमारी आत्मायें हल्की होंगी 
और अधिक स्वस्थ होंगी। 
अब यह न पूछ्ना 
कि 
अगर यह जन्म सातवाँ हुआ तो?      

देखो! दाल जलने की गन्ध भी आने लगी 
अब वैसे आँख झपकाना छोड़ो 
जब शुरू के दिनों में मैं करता था 
प्यार की बातें और तुम बस झप्प! झप्प!! 
कुछ कच्च कच्च सहेज लें - 
सच्च? 
हाँ जी, 
सच्च!

शुक्रवार, 18 मार्च 2011

आ रही होली - पुनर्प्रस्तुति


सड़क पर बिछे पत्ते
हुलस हवा खड़काय बोली

आ रही होली।

पुरा' बसन उतार दी
फुनगियाँ उगने लगीं
शोख हो गई, न भोली
धरा गा रही होली।

रस भरे अँग अंग अंगना
हरसाय सहला पवन सजना 
भर भर उछाह उठन ओढ़ी 
सजी धानी छींट चोली। 

शहर गाँव चौरा' तिराहे
लोग बेशरम बाग बउराए
साजते लकड़ी की डोली 
हो फाग आग युगनद्ध होली


~ गिरिजेश राव

शनिवार, 5 मार्च 2011

न हार रे मन!


रे मन!
अलग न हो, स्वीकार स्व जो जीवन धन
बिलग न हो मन! स्वीकार, न हार रे मन!

सुलग सुलग धधकी धरा जब ताप इक दिन
उमगी सरिता नयनों से निकल, सिहरा तन
भभका भाप उच्छवास, प्रलय प्रतीति जन
कर उठे हाहाकार, कैसी यह रीति प्रीति मन!
बढ़ चले प्राण नि:शंक साँस झरते आनन्द कण
समय नहीं उपयुक्त, सदियों की रीत प्रीत मन!
वृथा सब, आखिर हार रे मन!

शीतल विराग, राग तवा ताप, बूँदें छ्न छ्न
उड़ गईं छोड़ चिह्न हर ठाँव टप सन टप सन
निश्चिंत सुहृद – होगा अब समाज हित स्व हित।
न समझे ताप सिकुड़ा कोर, ज्यों भू ज्वालामुख
फूटे, आघातों के विवर रेख लावा लह दह नर्तन।
शीतल अब, उर्वर अब, भू पर लिख छ्न्द गहन    
स्वीकार, न हार रे मन!

मान, न कर मान, चलने दे सहज जीवन
सहज सहेज रचते रहे  विस्तार हर पल
सहम न देख निज आचार अब हर क्षण।
यह है जीवन धार, जो भीगे न, सूखे न,
न,न करते ठाढ़ छाँव, कैसा आभार घन?  
दुन्दुभि ध्वनि लीन अब क्यों मन्द स्वर?
स्वीकार, न हार रे मन

बुधवार, 2 मार्च 2011

कुत्ते जी, कुत्ते जी!


कुत्ते जी, कुत्ते जी!
बोटी कि डंडा? 
बोटी ... भौं भौं। 

लेग पीस, ब्रेस्ट पीस 
मीट ही मीट 
बहुत कचीट।
नोच लिया
चबा लिया 
निगल लिया .. 
तुम्हरे खातिर। 
लो अब 
कटरकट्ट हड्डी 
बोटी ... भौं भौं। 

कुत्ते जी, कुत्ते जी!
बोटी कि डंडा? 
डंडा ... भौं भौं। 

गाँठ गाँठ पिलाई 
महँगी चिकनाई 
भाये जो जीभ। 
पीट लिया 
जीत लिया 
तोड़ दिया ... 
तुम्हरे खातिर। 
उछाल दिया 
लै आव बड्डी 
डंडा ... भौं भौं। 

कुत्ते जी, कुत्ते जी!
बोटी कि डंडा? 
कूँ  कूँ... कूँ  कूँ। 

जी कहूँ
दुलार कहूँ 
रहोगे कुत्ते ही।
पूँछ तो हिलाओ! 
कूँ कूँ ... कूँ कूँ। 

शाबास! 
बैठे रहो यूँ ही 
रहोगे कुत्ते ही। 
कुत्ते जी, कुत्ते जी!