रे मन! 
अलग न हो, स्वीकार स्व जो जीवन धन 
बिलग न हो मन! स्वीकार, न हार रे मन! 
सुलग सुलग धधकी धरा जब ताप इक दिन
उमगी सरिता नयनों से निकल, सिहरा तन 
भभका भाप उच्छवास, प्रलय प्रतीति जन 
कर उठे हाहाकार, कैसी यह रीति प्रीति मन! 
बढ़ चले प्राण नि:शंक साँस झरते आनन्द कण 
समय नहीं उपयुक्त, सदियों की रीत प्रीत मन! 
वृथा सब, आखिर हार रे मन! 
शीतल विराग, राग तवा ताप, बूँदें छ्न छ्न 
उड़ गईं छोड़ चिह्न हर ठाँव टप सन टप सन 
निश्चिंत सुहृद – होगा अब समाज हित स्व हित। 
न समझे ताप सिकुड़ा कोर, ज्यों भू ज्वालामुख
फूटे, आघातों के विवर रेख लावा लह दह नर्तन। 
शीतल अब, उर्वर अब, भू पर लिख छ्न्द गहन    
स्वीकार, न हार रे मन! 
मान, न कर मान, चलने दे सहज जीवन
सहज सहेज रचते रहे  विस्तार हर पल
सहम न देख निज आचार अब हर क्षण।
यह है जीवन धार, जो भीगे न, सूखे न, 
न,न करते ठाढ़ छाँव, कैसा आभार घन?  
दुन्दुभि ध्वनि लीन अब क्यों मन्द स्वर? 
स्वीकार, न हार रे मन! 
 
