गुरुवार, 26 अगस्त 2010

नाराज़ न हो बेटे! नाराज़ न हो।

कल अम्मा पिताजी वापस गाँव चले गए। आने से पहले ही वे वापसी के रिजर्वेशन को पक्का करते हैं।   प्रात:काल इस घर में मानस पारायण नहीं हो रहा। किशमिश का प्रसाद आज कोई नहीं खिलाएगा। यह घर उन्हें रोक नहीं पाता।

प्लेटफॉर्म पर उन लोगों के साथ नहीं बैठा और न डिब्बे में। डर था कि कहीं फूट न पड़ूँ। क़रीब रोज ही प्रत्यक्ष या परोक्ष, मरने की बातें उनके मुँह से सुनी हैं। मैं तो उनके साथ साथ 'जो चाहो उजियार' या 'पीपली लाइव' देखते या बातें करते खुश होता रहा लेकिन गए सावन तीन परिचितों ने अपने स्वस्थ वृद्ध पिता खोये हैं।

आज प्रात: एक बहुत पुराने पावर प्वाइंट प्रेजेंटेशन की याद हो आई। माता पिता के आयुजनित दु:ख कोंचने लगे और कुछ कुछ समझ में आया कि वे क्यों मरने की बातें करते हैं। ...

हमारे मरने की बात पर
नाराज़ न हो बेटे, नाराज़ न हो।

सुबह उठने के पहले
खाट नहीं, बूढ़ी हड्डियाँ चटखती हैं
चिन्ता होती है कि एक दिन और जीना है।
ऐसे में चलते साल के गुज़र गए दिन
हम गिनते हैं - कितने बीते?
गिनती भूल जाती है
और हम मरने की बातें करते हैं
बेटे, नाराज़ न हो।

रोज प्रात को सूरज उगता है
दिन चढ़ता है और फिर ढलता है
रोज तुम्हारी माँ कुछ किरणें माँग लेती है।
रात में ग़ायब नींद आँखें लिए
तुम्हारे लिए हम बुनते हैं
उनसे आशीर्वादों के झिगोले
और पठा देते हैं घटते बढ़ते।
जब हाथ काँपने लगते हैं
और किरणें बुन नहीं पाते
तो हम मरने की बातें करते हैं।
मेरे बेटे नाराज़ न हो। 

अब की गाँव आना
तो गेट पर खड़े हो जोर से आवाज़ देना
तुम्हें सुनने को बहरे कान तरसते हैं
धुँधलाई आँखों से पहचाना नहीं जाता।
खड़े रहना चुपचाप
जब मैं गेट खोलने आऊँ।
कदमों का साथ अब धड़कने नहीं देतीं
दिल में दर्द उठता है
भाग कर तुम्हें गले जो नहीं लगा सकता!
ऐसे में बैठते ही अगर
हम उठने उठाने की बातें करें
तो नाराज़ न होना।

अपने घुटनों के दर्द का अच्छा इलाज़ कराओ
बड़ी तमन्ना है कि तुम्हारे कन्धे पर हो
हमारी अंतिम यात्रा।
कहीं ऐसा न हो कि उस दिन
तुम्हारे घुटने साथ न दें!
हमारे इस स्वार्थ पर
बेटे! नाराज़ न होना।

अपने बेटे से कहना
बाबा तुम्हें बहुत चाहते हैं
लेकिन झिड़कना रोक नहीं पाते।
उसे समझाना कि चौबिसो घंटे
जब सिर में चक्कर रहता हो
तो आदमी चिड़चिड़ा हो जाता है।
उसके साथ गेंद खेले भी तो कैसे?
उसकी 'कम ऑन बाबा' की पुकार का साथ
ढीली कमान सरीखी रीढ़ नही दे पाती।
ऐसे में बहू से
उसकी शिकायत करते हैं
"बड़ा शैतान है।"
उससे कहना - इस बात पर नाराज़ न हो।

हर बार तुम्हारे पास आने से पहले
हम वापसी के रिजर्वेशन की तसल्ली करते हैं
शहर में नहीं रहा जाता बेटे!
जिस पीपल की छाँव में
तुम्हारे बाबा की निशानियाँ हैं
जिन खेतों की मेड़ों पर उनके
कदमों के निशान हैं -
उनसे दूर नहीं रहा जाता।
क्या करोगे बेटे!
तुम्हारा पिता जो सिमटा रहा
जो महत्त्वाकांक्षी नहीं रहा
सिकुड़ने की इस उमर में
अब फैलाव कहाँ से लाये?
सुखी रहो बेटे!
तुमने सीमाएँ तोड़
अपने पंख फैलाए हैं
हमारे जाने के बाद
हमारी तिथियों के दिन
तुम दोनों गाँव आ जाया करना।
दरकती ईंटों के बीच
भटकती साँसों को एक दिन के लिए ही सही
ठहराव तो मिलेगा!
बहू से कहना कि
दिया जला देगी उस खाली जगह
जहाँ तुम्हारी माँ और तुलसी
बातें करते हैं।
उसकी पायल की रुनझुन से डर कर बेटे!
दरकते घर में प्रेत नहीं आएँगे।
इस काम के लिए कोई काम रुके
तो नाराज़ न होना।
तुम तो प्रबन्धक हो न!

नया लिखने की उमर नहीं
पुराना बाँचने की उमर है
और आँखें धुँधली हो चली हैं
मन साथ नहीं देता
जब बाँचा नहीं जाता
तो हम मरने की बातें करते हैं।
रोज़ रोज़ मरने से
क्या अच्छा नहीं एक ही बार मर जाना?

हमारे मरने की बात पर
नाराज न हो बेटे, नाराज़ न हो।

15 टिप्‍पणियां:

  1. ब्रह्मसत्यम जगद् मिथ्या!
    कोई टिप्पणी नहीं। मैंने पढा भी नहीं।

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  2. वाह !!
    बहुत बहुत बहुत ही भाव प्रणव रचना..
    आज कल हम भी कुछ ऐसे ही मनस्थिति से गुज़र रहे हैं....हमारे माँ-बाबा भी आ रहे हैं कनाडा, जब भी आए हैं हम साथ लेकर आए हैं इस बार हम नहीं हैं उनके साथ जब कि अब वो ज्यादा बूढे हैं, बाबा भी अब कम सुनते हैं...माँ को चलने में तकलीफ है...फिर भी बहुत ख़ुश हो कर आ रहे हैं...सबको देखने, यही कहते हैं क्या भरोसा कब जाना हो, कम से कम सबको देख तो लें हम...आज कल इसी तैयारी में लगे हुए हैं...एकदम से अपने मन कि दशा पढ़ कर आँखें नम हो गई हैं....
    हृदय से आभार..

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  3. अत्यधिक संवेदनाओं को समेटे हुए है यह पोस्ट.

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  4. दोपहर में एक बार पढ़ लेने के बाद अब दुबारा पढ़ रहा हूँ और बहूत कुछ सोचे भी जा रहा हूँ। बहूत भावुक कर देने वाली रचना है।

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  5. पिता का वात्सल्य , संतान का प्रेम ...
    सब अनूठा है ...
    कल ही दादी की बरसी थी ...
    आखिरी समय तक पिता को चिंता थी की आज अम्मा रोई क्यूँ ..?

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  6. गिरिजेश भाई , क्या कहूँ .. इस दुख से मै भी गुजर चुका हूँ .. और आज का दिन .. आज तो मेरे पिता यह दुनिया छोड़कर चले गये थे ।
    एक पोस्ट लिखी है "पास पड़ोस" पर देखियेगा ।

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  7. kuchh rachnaon ke liye ek tippani kafi nahi hoti. jaise shabd kabhi pure hi nahi padte.

    ek bahut hi bhavnatmak prastuti...

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  8. बहुत ही भावुक तथा मार्मिक रचना है. कहीं न कही लगता है ये हम सभी लोगों की व्यथा भरी पर कडवी और सच्ची कहानी है पता नही हम अपनी संतानों को संवेदनशीलता के कुछ पाठ और संस्कारों की कुछ लोरियां दे पायॆंगे...पुन: बहुत बहुत धन्यवाद और बधाई मार्मिक अभिव्यक्ति के लिये............

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  9. हे भगवान् |

    कोई दर्द सबका है - फिर भी हर एक के लिए उतना ही बड़ा है न ? अजीब लगता है जब किसी दर्द के लिए कोई यह कह कर सांत्वना देता है - की यह दर्द तो सबको है | सबको होने से एक व्यक्ति के दर्द की अनुभूति धूमिल हो जाती है क्या ? :(

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