शनिवार, 19 जुलाई 2014

आत्मज्ञान

... और अंत में मैंने अपनी वह रचना पढ़ी जिसे
मानसिक निर्वात में रचा था।
निर्वात वैसा नहीं जिसमें कुछ नहीं होता
निर्वात ऐसा जिसमें केवल वही थी
और

मैंने जाना कि तमाम दर्शन
ढेरों धर्मग्रंथ, प्रवचन,, साहित्य, गढ़ू ग्रंथ, विचार, विमर्श आदि आदि
सुन्दर ध्वंसावशेष थे जिन्हें संग्रहालयों में सजा
 या
घर की दीवारों पर टाँग
इम्प्रेशन जमाया जा सकता था
आदर भी दिया जा सकता था
सहेजा जा सकता था कि
प्रमाण हो आगामी पीढ़ियों के पास
कि पुरनिये निपट गँवार अन्धविश्वासी न हो
बहती नदी से बाहर को उछाल मारती मछलियों से थे
और   
'चिंतनीय' थे
कि चिंतनीय होना जीवन का चिह्न होता है
इसलिये वे जीवन से लबालब भरे आदरणीय थे आदि आदि।

बात वही कि सोता भीतर से ही फूटता है
वही श्रेय है
हाथों में छेनी हथौड़ी और मन में चट्टान तो हो!

उस प्राचीन रोमन कुल्हाड़ी को सहेज क्या हासिल
जिसकी बेंट सात बार

और जिसका फल चार बार बदले जा चुके हों?

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