शुक्रवार, 23 नवंबर 2012

स्त्री!

स्त्री! 
गुफाओं से निकल 
आखेट को तज 
उस दिन जब पहली बार 
लाठी को हल बना मैने जमीन जोती थी 
और तुमने अपने रोमिल आँचल में सहेजे बीज 
बिछाये थे गिन गिन सीताओं में 
प्रकृति का उलट पाठ था वह
उस दिन तुम्हारी आँखों में विद्रोह पढ़ा था मैंने 
आज भी सहम सहम जाता हूँ। 

थी चाँदनी उस रात 
थके थे हम दोनों खुले नभ की छाँव 
भुनते अन्न, कन्द, मूल, गन्ध बीच 
तुमने यूँ ही रखा प्रणय प्रस्ताव
और 
मैं डरा पहली बार।  
अचरज नहीं कि पहला छ्न्द गढ़ा 
भोली चाहतों को वर्जनाओं में मढ़ा 
की मर्यादा और सम्बन्धों की बातें पहली बार 
और पहली बार खिलखिलाहट सुनी
मानुषी खिल खिल
तारे छिपे और गहरे 
आग बुझी अचानक।

असमंजस में मैं 
देवताओं को तोड़ लाया नभ से भूमि पर 
दिव्य बातें - ऋत की, सच की
और तुम बस खिलखिलाती रही
कहा देवों ने - माँ को नमन करो! 
तुमने देखा सतिरस्कार 
बन्द यह वमन करो 
सृजन करो! 

स्त्री! 
मैंने तुम्हारी बात मानी 
सृजन के नियम बनाये 
(पहले होता ही न था जैसे!) 
संहितायें गढ़ीं 
चन्द्रकलाओं में नियम ढूँढ़े 
गर्भ को पवित्र और अपवित्र दो प्रकार दिये
और सबसे बाद प्रकट हुआ विराट ईश्वर परुष
प्रकृति की छाती पर सवार 
दार्शनिक उत्तेजना में
और
तुम्हारी आँखों में दिखी सहम पहली बार।

ज्यों माँ की बात न मान बच्चे ने 
उजाड़ दिया हो किसी चिड़िया का घोसला 
फोड़ दिया हो अंडा पहली बार - 
तुमने आह भरी 
मैं शापित हुआ पहली बार 
प्रलय तक स्वयं को छलने के लिये। 

शब्द छल 
वाक्य छल 
व्याकरण छल... 
मैं गढ़ता गया छल छल छल 
तुम रोती गयी छल छल छल 
आज भी नहीं भूला हूँ मैं अपना 
पहला अट्टहास - बल बल बल 
देहि मे बलं माता! 

आज भी मैं पढ़ने के प्रयास में हूँ 
तुम्हारी आँखों की वह ऋचा
उतरी थी जो बल की माँग पर
मेरी दृष्टि टँगी है तीसरी आँख पर।

दो सीधी सादी आँखों की बातों को 
मैं आज भी नहीं बाँच पाता हूँ।
आश्चर्य नहीं कि हर दोष का बीज
तुममें ही पाता हूँ।
 स्त्री!
मैं पुरुष, इस विश्व का विधाता हूँ।

7 टिप्‍पणियां:

  1. मैं पुरुष, इस विश्व का विधाता हूँ। aisa hai kya??
    waise behtareen... naman aapko.. !

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  2. .
    .
    .
    कहा देवों ने
    माँ को नमन करो
    तुमने देखा तिरस्कार से
    बन्द यह वमन करो
    सृजन करो!


    शब्द छल
    वाक्य छल
    व्याकरण छल...
    मैं गढ़ता गया छल छल छल
    तुम रोती गयी छल छल छल
    आज भी नहीं भूला हूँ मैं अपना
    पहला अट्टहास - बल बल बल
    बलं देहि माता!


    दो सीधी सादी आँखों की बातों को
    मैं आज भी नहीं बाँच पाता हूँ।
    आश्चर्य नहीं कि हर दोष का बीज
    तुममें ही पाता हूँ।
    स्त्री!
    मैं पुरुष, इस विश्व का विधाता हूँ।



    स्त्री!
    मैं पुरूष
    सब कुछ होने पर भी
    तेरे सामने
    लाचार खुद को पाता हूँ
    खड़ा नहीं रह पाता हूँ

    एक बेबस विधाता हूँ...


    गहरी रचना कविश्रेष्ठ, हर किसी के लिये एक अलग सा अर्थ लिये...



    ...

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  3. किसी को पूर्णता नहीं दी, पूर्णता के बीज एक दूसरे में ही छिपा दिये..

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