रविवार, 10 जुलाई 2011

आज वीणा वादन को मन किया

(1) 

हा तुम! हाथपाँवहीन जन्म से!! 
हा यौवन! जब भी बहता है लावा
मैं पहचान जाती हूँ तुम्हारे मुख की आब से।
, कुंठित न हो,
 तैयार हो कि आज होना है तुम्हें स्नातक
 कामवारि की बहुरंगी धार से। 
ममता उमड़ी है मेरे भीतर जिसे वासना भी कहते हैं। 
सनातन नासमझ है! 
क्यों हो वंचित तुम, सृष्टि के सर्वोत्तम आनन्द वरदान से?  
कुरूपता या अंग भंग, क्यों करें तुम्हें वंचित?  
जब कि तुम हो सक्षम।
मैं माँ हूँ और तुम मेरी देह के टुकड़े 
क्यों रहो तुम खंडित जब कि 
हमारे मिलन से दरकें अभाव के प्रस्तर द्वार 
और भाव सरि कर जाय तुम्हें तृप्त और मुझे आपूरित
तुम्हारे पास जैव विविधता का अनूठा बीज। 
मैं भूमा क्यों होऊँ वंचित एक अलग रंग के पुष्पपादप से
इससे तुम्हारी गन्ध निखरती है।
और तुम्हारे निखार से मेरा अंत: हुलसता है। 
मैं स्वार्थी नहींअर्थवान हूँ। मुझे समझो। 


(2) 


मैं माँ हूँ। आदिम ममता करती है मेरा सृजन एक परम्परा सी। 
मैं करती हूँ तुम्हारा सृजन। उद्धत परम्परा की वाहक हूँ मैं। 
उफनता है मेरे भीतर उद्दाम काम हर माह 
शरीर से होता है प्रवाहित वह जिसने यूँ नहीं चुनी राह किसी और प्राणी में। 
मैं अंत:सलिला, होती हूँ लहूलुहान चन्द्रकलाओं की नियमितता सी। 
प्रकृति देती है आदिम सन्देश। मैं सन्देशवाहिका हूँ - 
मनुज सृष्टि की सर्वप्रिय संतान है।
समझो कि स्वेदपूर्ण सिसकियों और मन्द आनन्द ध्वनियों में 
भोग्या नहीं आदिम परम्परा के स्वर हैं। 
मेरा सम्मान करो। मैं माँग नहीं रहीमैं तो दायी हूँ 
कह रही हूँ कि मेरे सम्मान से तुम निखरते हो 
और तुम्हारे निखार से मेरा अंत: हुलसता है। 
मैं स्वार्थी नहींअर्थवान हूँ। मुझे समझो। 



 

6 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही गूढ़ तरीके से परिभाषित किया आपने..
    एक नए विचार नए दृष्टिकोण के साथ..
    बहुत अच्छी लगी ये कृति आप की

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  2. सच में, कभी-कभी वीणा बजाया करिए न :)

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  3. 'मेरे सम्मान से तुम निखरते हो
    और तुम्हारे निखार से मेरा अंत: हुलसता है'
    *यही तो निष्कर्ष है.
    स्त्री मन के भावों की ऐसी अद्भुत और सफल अभिव्यक्ति पढ़कर अच्छा लगा. ..गुलज़ार साहब की कुछ नज्में भी याद आयीं हैं जो आश्चर्य में डालती हैं कि एक पुरुष की कलम स्त्री हृदय के भावों की कैसे इतनी सुन्दर अभिव्यक्ति कर सकती है!

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  4. मुझे आप की यह कविता बेहद पसंद है.कई बार पढ़ चुकी हूँ..सेव कर ली है .....मन को छू लेने वाली ,बहुत प्रभावी.
    बेहद कोमलता के साथ मन के गहन भावों को कलमबद्ध किया गया है.
    मेरा ऐसा विचार है कि अगर कवि चाहे तो इसे विस्तार दे कर महाकाव्य रच सकता है .[छोटे मुंह बड़ी बात कही गयी है तो माफ़ी चाहूंगी]

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