जो दूसरों की हैं, कवितायें हैं। जो मेरी हैं, -वितायें हैं, '-' रिक्ति में 'स' लगे, 'क' लगे, कुछ और लगे या रिक्त ही रहे; चिन्ता नहीं। ... प्रवाह को शब्द भर दे देता हूँ।
मंगलवार, 17 मई 2011
सोमवार, 16 मई 2011
रामजन्मभूमि अयोध्या के नाम ...
शायरी की चासनी में सोच की नापाकी परोसना बहुत सुरक्षित है। सुनने वाला शायरी पर मुग्ध होते होते नापाकी की परख ही भूलने लगता है। वाह वाही मिलती है सो अलग।
अयोध्या विवाद और बाबरी विध्वंस पर कभी किसी ने ये शेर कहकर बहुत वाहवाही लूटी थी:
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अयोध्या विवाद और बाबरी विध्वंस पर कभी किसी ने ये शेर कहकर बहुत वाहवाही लूटी थी:
सरकशीं की किसी महमूद ने सदियों पहले
इसलिए क्या खूब खबर ली मेरे सर की तुमने,
चंद पत्थर गिराए थे किसी बाबर ने कभी
ईंट से ईंट बजा दी मेरे घर की तुमने।
इसलिए क्या खूब खबर ली मेरे सर की तुमने,
चंद पत्थर गिराए थे किसी बाबर ने कभी
ईंट से ईंट बजा दी मेरे घर की तुमने।
इन भावुक दिखती पंक्तियों में वही मक्कारी छिपी है जिसे आजकल ओसामा की मौत नहीं पच रही। महमूद और बाबर से ऐसे जन लगाव नहीं छोड़ सकते। उन्हें याद करते हैं और मूर्ख बनाने को बात ऐसे करते हैं जैसे कोई मतलब ही नहीं! बहुत खूब!
सरकशीं और 'चन्द पत्थरों' के गिराये जाने से वाकई तकलीफ है तो ठीक करने को आगे क्यों नहीं बढ़ते? उस समय अपने सर और घर नजर आने लगते हैं! बहुत खूब मुल्ला जी, बहुत खूब!!
मुझे वाहवाही का लोभ नहीं और न चाहता हूँ कि आप करें। बस गुजारिश है कि मक्कारियों को देखने और समझने हेतु आँख, कान और दिमाग खुले रखें। दिल की बात न कीजिये, पम्पिंग मशीन में सोचने समझने की क्षमता नहीं होती। जो बातें मामूली लग रही हैं, असल में वे नासूर हैं। सँभलिये। मालिकाना हक़ पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय का अंतिम निर्णय प्रतीक्षित है, उसका सम्मान होना चाहिये लेकिन जबरी के मालिकाना हक़ की लड़ाई में हक़-ए-मुहब्बत को कठमुल्ली सोच की जो आँच सदियों से जला रही है उसका क्या? कभी यह सरकशी बुझेगी भी या ऐसे ही रहेगी?
मेरे महबूब का घर पत्थर नजर आता है,
खुद का टाट छप्पर महल नजर आता है।
चिल्लाने कान फाड़ने को वो दुआ कहते हैं,
मेरा कराहना उन्हें कहर नज़र आता है।
निकाल फेंका मवाद सना नेजा जो सीने से,
उनकी बिलबिलाहटों में भरम नजर आता है।
राजी हम इश्क-ए-नूर में दीवार बँटवार को,
उनको दीनो ईमान पर तरस नजर आता है।
क़ौमों की जिन्दगी में सदियाँ मायने रखती हैं,
रोज सहना उन्हें मंजर-ए-फुरसत नजर आता है। __________________________________________________________
रोज सहना उन्हें मंजर-ए-फुरसत नजर आता है। __________________________________________________________
ढाँचे में लगा कसौटी स्तम्भ |
ढाँचे की दीवार में ज्यों का त्यों लगा दिया गया तोड़े गये मन्दिर का कसौटी स्तम्भ |
प्रतिमा के अवशेष (द्वारपालक?) |
12 वीं सदी का एक और अभिलेख जो ढाँचे से मिला |
जन्मभूमि खुदाई में ASI को मिला अभिलेख का टुकड़ा |
पर्तों में झाँकता सच |
ढाँचे की दीवारों में मिला हरि विष्णु अभिलेख जिसमें गहड़वाल राजा प्रतिनिधि द्वारा बाली और दशानन रावण नाशक हरि विष्णु के मन्दिर निर्माण की चर्चा है। |
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शनिवार, 14 मई 2011
शिकायत
रोना नहीं आता उन्हें आब-ए-चश्म देख
हुज़ूर को है शिकायत आँखें सलामत क्यों हैं।
शब्दार्थ : आब-ए-चश्म - आँसू
'हुज़ूर' वर्तनी शोधन आभार - वाणी शर्मा
'हुज़ूर' वर्तनी शोधन आभार - वाणी शर्मा
रविवार, 8 मई 2011
निराला की मातृ वन्दना
'पु' नाम के नरक से तारने के कारण संतान को पुत्र या पुत्री कहा जाता है। जीवन के समस्त अशुभ, असफलतायें, दाह, पीड़ायें आदि ही नरक हैं और मनुष्य़ अपनी संतति में इनसे मुक्ति की अभिलाषा रखता है। संतान को इसमें समर्थ बनाना माता पिता का दायित्त्व होता है।
इस कविता में निराला स्वार्थ और बाधाओं दोनों से मुक्ति और जीवन के कठिन मार्ग पर चलने योग्य सामर्थ्य की कामना माँ के प्रति समर्पण द्वारा करते हैं। इस हेतु वह सर्वस्व की बलि देने को भी उद्यत हैं। शब्दों का ललित प्रवाह और भाव संयोजन इस कविता को गेय और समृद्ध बनाते हैं।
मुझे इस कविता में जो सबसे उल्लेखनीय बात लगी वह है - मुक्त करूंगा तुझे अटल। माँ से माँगते तो सभी हैं लेकिन एक पग आगे बढ़ कर माँ को मुक्ति का अटल आश्वासन देना चाहे उसके लिये जो बलि देनी पड़े, इस कविता को महान बनाता है। कविता वात्सल्य की सहजता से बहुत आगे समाजोन्मुख होती है जिसमें संतान माँ के प्रति अपने दायित्त्व की पूर्ति को संकल्पित होता है। कविता प्रस्तुत है।
नर जीवन के स्वार्थ सकल
बलि हों तेरे चरणों पर, माँ
मेरे श्रम सिंचित सब फल।
जीवन के रथ पर चढ़कर
सदा मृत्यु पथ पर बढ़ कर
महाकाल के खरतर शर सह
सकूँ, मुझे तू कर दृढ़तर;
जागे मेरे उर में तेरी
मूर्ति अश्रु जल धौत विमल
दृग जल से पा बल बलि कर दूँ
जननि, जन्म श्रम संचित पल।
बाधाएँ आएँ तन पर
देखूँ तुझे नयन मन भर
मुझे देख तू सजल दृगों से
अपलक, उर के शतदल पर;
क्लेद युक्त, अपना तन दूंगा
मुक्त करूंगा तुझे अटल
तेरे चरणों पर दे कर बलि
सकल श्रेय श्रम संचित फल।
(सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला')
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रेखांकन - अलका राव |
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