रविवार, 25 जुलाई 2010

मरघट में ज़िन्दा रहना है...

लिखता हूँ
रचता हूँ

कि
मैं मरूँ नहीं।


बार्बेक्यू की टेबल पर भुनते कबाब, 
मछलियाँ, प्रॉन
रेड वाइन से उन्हें
ग्रास नली से नीचे ढकेलते
उन गहराइयों में
जहाँ बस है तेज़ाब ही तेज़ाब
मृत्यु के उत्सव की उन घड़ियों में भी
मुझे याद रहती हैं -
चूल्हे पर रोटियाँ सेकती
ढिबरी की रोशनी में
बच्चे को ककहरा सिखाती
माताएँ।



मल्टी टास्किंग
और पैरलल प्रॉसेसिंग की बातों पर
अक्सर चमक उठते हैं कुछ खास दृश्य।
बेसन फेंटते, पकौड़ी छानते, परोसते हाथ
जेठ, ससुर के आते ही
एक सहज हरकत
सिर के पल्लू को दाँतों तले दबा
आँचल सँभालते
थाली सरकाते हाथ -
कोई पकौड़ी कभी जली नहीं!



पार्क में
सभ्य लड़कियाँ, औरतें नहीं आतीं
घरों की खिड़कियाँ तक
खोलने वालों को झिड़कियाँ देती हैं
बेंच पर क़ाबिज हैं
असामाजिक तत्त्व।
हवाओं में मुझे सूझती है
मृत्यु की आदिम गन्ध
और जिन्दा रहने को
साथ लेता हूँ एक ज़िन्दादिल।
वह टोकता है, डाँटता है उन्हें
और मेरे मुँह से झरने लगते हैं  
धमकियों और गालियों के
अनुष्टप मंत्र
मृतसंजीवनी ऋचाएँ ।
ज़िंन्दादिल हैरान होता है
- यह गालियाँ भी दे सकता है ! -
मैं देखता हूँ उसकी आँखों में
एक तिलस्म मर रहा है।
उसके लिए
मैं भी हो जाता हूँ  -
एक आम आदमी, अदना सा ?
और मुझे लगता है
ज़िन्दगी के लिए
तिलस्म मरने ज़रूरी हैं
निहायत ज़रूरी।



हाउस टैक्स भरने के लिए
एक ज़िम्मेदार नागरिक की तरह
अर्ज़ी लगाता हूँ
महीने भर बाद भी कुछ न होने पर
फेरी लगाता हूँ -
चपरासी बताता है
साहब यहाँ वे पेपर उड़ जाते हैं
जिन पर वेट माने वज़न नहीं होता।
ऑफिस में पेपरवेट के लिए बजट नहीं है
- समझिए!
और अचानक मैं पाता हूँ
मेरी ज़िन्दगी का एक हिस्सा
मर गया।
फिर वही अँधियारे हैं 
सिंगल फेज बिजली है
फोन पर कोई उत्तर नहीं
चिपचिप पसीने से नहाते
जमाता हूँ शब्द दर शब्द
और
मेरे भीतर वह जीने लगता है
जो मर गया था
उस ऑफिस बाबू की टेबल पर
हतप्रभ सा
बेरुखी को देखते देखते...



उन बैठकों में
भारत की प्रगति
अंकों, ग्राफ, तालिका, चार्ट आदि आदि पर
सवार हो
साँप सीढ़ियों की कलाबाजी दिखाती है।
और
भरी भीड़ में मैं रह जाता हूँ तनहा।
अंकों से दामन छुड़ा
ढेर सारे दशमलव
प्रोजेक्टर स्क्रीन से उतर आते हैं
इकठ्ठे हो मुझसे बतियाने लगते हैं।

उन्हें मैं बहुत बड़े शून्य
- सिफर -
की रचनाएँ समझाता हूँ।
ग़जब है कि हर बार
कभी एक तो कभी दूजा दशमलव
मुझसे कहता है -
"इसी बात पर एक कविता ड्यू हुई।"
देर रात की पार्टियों से लौट
कविता रचता हूँ
एसी की लयबद्ध आवाज
पर ताल देती हैं
ढेर सारी सिसकियाँ
नाचते हैं
द-श-म-ल-व
दशमलव
दशम-लव
दश-मल-व
शून्य के घेरे में।

सुबह को ऑफिस जाते
कार स्टीरियो बजा रहा है
बिथोवन की नवीं सिम्फनी।
रात के नाच का
आदिम संगीत
सिर पर अभी भी काबिज है।


स्टीरियो बन्द करता हूँ
मुस्कुराता तय करता हूँ
मरघट में ज़िन्दा रहना है... 

मंगलवार, 20 जुलाई 2010

अपनेपन की ठगाई !

सजी बारात
मेरी शादी
वह रात
बुरी रात लगी
सुनसान लगी
तुम जो न थी !

दोस्तों के बीच मुशायरा
कहकहे, वाह वाहियाँ
आहें
मैं खामोश
 बके जा रही
जुबाँ मशीनी
झुकती नज़रें न थीं
तुम्हारी आहें न थीं !

कंगन खुलने की बेला
शाम-ए-सुहाग रात
तुम आईं
मैं हुआ भैया
वह भौजाई
चौंक देखा उसने
ये कैसी आवाज़
आँखें डबडबाईं
होठ मुस्कुराते
रिश्ते बदले
बस लम्हे दो लम्हे !

लिख गया सब कहानी
उसके मन पर जुबानी
मेरा चेहरा जो उतरा
हुई रंगत बेपानी

कैसी थी वह रात !
एक शौहर ने सुनाई
अपनी इश्क की कहानी
लरज उठे थे आँसू
बह चले थे आँसू
दो दिल बस धड़के
रात भर थे धड़के
भोर ने दिखाया
वह तारा अकेला
जिसकी  साखी कभी
हमने लिक्खी थी
अनूठी
प्रेम कहानी ।

सुबह निखरी
ठन ठन ठिठोली
वह भाभी तुम ननदी
नज़र उठा
जो देखा
तुम दोनों ने हँसते -
मैंने जाना
क्या होती है
अपनेपन की ठगाई !

रविवार, 18 जुलाई 2010

किस काम की ये गदराई ?

नीले बितान पर 
बदरी है छाई 
दई के मुँह पोत रही 
कालिख करुवाई । 
तरबतर पसीने 
जोत रही
खेतों में 
सूखी कमाई 
बूढ़ी है माई।  

पास के शहर में, टिन के शेड में 
परेशाँ लहना* है 
छा पाए कैसे, 
छ्प्पर जो महँगा है  
ग़जब उमस है भाई ! 
रोटी की भाप
हाथ आग है लगाई 
बड़ी  गरुई महँगाई। 

चूल्हे को झोंक झौंक, 
बालों को रोक टोक 
सिसके मैना है 
अम्मा की बात पर 
देवर की तान पर 
माखे नैना हैं 
न टूटे सगाई ! 
बाबा ने बियह दिया 
कसाई संग गाई ।  

छोड़ो बदरी शर्मी 
निकल नाचो बेशर्मी 
जो झड़ पड़े 
बरस पड़े
झमाझम चउवाई।
हुलसे खेतों में माई 
भागे लहना से महँगाई 
मिटे मैना की करुवाई 
घोहा घोहा मूँठ मूँठ 
झरे छर छर कमाई 

अब बरसो भी,
किस काम की ये गदराई ?
* लहना - वृद्धा के बेटे का नाम 

शुक्रवार, 16 जुलाई 2010

बेढंगा

ये डण्डे का फंडा है
आदमी रहता चंगा है।

डंडे से भौकी पिटवाओ
डंडे को तेल लगाओ
डंडा कभी न मन्दा है,
मालिक इसका अन्धा है।

डंडा पाते नेता लोग
उलटी करते नेता लोग
चाटे उसको जन्ता है
डंडा बड़का बंका है।

डंडे ने तेल पेरवाया
कोल्हू से जीवन घबराया
 साँड़ हुए सब बैला हैं
अँड़ुवा भर भर थैला है।

डण्डे ने पारक बनवाया
खेतों से सब मेंड़ उड़ाया
चलती उन पर लैला हैं
पाँव में उनके छैला हैं।

डंडा नाचे चौराहे पर
आँखें फूटीं चौराहे पर
लुटता जन जन अन्धा है
डण्डा माँगे चन्दा है।

शुक्रवार, 2 जुलाई 2010

कैसे ?

हवाओं में घुली 
ताज़ा रक्त गन्ध 
मलयानिल सुगन्धि भरे 
शब्द कैसे रचूँ ? 
चीखते अखबारों में 
सिन्दूर की सिसकियाँ हैं 
ढोर चराते कान्हा की बाँसुरी सा
कैसे बजूँ? 
घना घनघोर जंगल 
घेरे सहेजे है धरती के मंगल 
लहक उठी हैं आनन्द तुकबन्दियाँ 
पर ऊँची डालों से 
घात है लगी हुई 
अहेर की रपट पलट  
आँखों को मूँद 
गीतों के बन्ध कैसे गढ़ूँ ? 
निर्लज्ज है प्रकृति 
प्रात है, दुपहर है, साँझ है, रात है 
व्यवस्थित और उदात्त  
रंगशालाओं के पाठ हैं 
आँसुओं को रोक 
अज़गर धीर धर
फुफकारते अभिनय 
कैसे करूँ? 
सौन्दर्य है, राग है 
नेह है,
छन्दमयी देह है 
सनातन जननी !
तुम्हारी आराधना में 
प्रेम में 
भक्ति में 
पगूँ? 
डगमगाते हैं पग । 
सृजन लास्य जैसे 
नर्तन कैसे करूँ? 
कैसे ??