गोमती किनारे
बादर कारे कारे
बरस रहे भीग रहे
तन और सड़क कन
घहर गगन घन
धो रहे धूल धन
महक रही माटी.
बही चउआई
सहेज रही गोरी
केश कारे बहक लहक कपड़े
कजरारे नयन धुन
गुन चुन छुन छहर
फहर बिखर शहर सरर
चहक उठे पनाले.
बिजली हुई गुल
पहुँची गगन बीच
हँसती कड़क नीच
ऊँची उड़ान छूटी जुबान
जवान जान खुद को
नाच उठी
भुनते अनाज सी.
....
....
सब कुछ हो गया
खतम हुआ
खोया रहा साँस रोके
सब कुछ सोच लिया
घर घुस्सी तू आलसी !
जो दूसरों की हैं, कवितायें हैं। जो मेरी हैं, -वितायें हैं, '-' रिक्ति में 'स' लगे, 'क' लगे, कुछ और लगे या रिक्त ही रहे; चिन्ता नहीं। ... प्रवाह को शब्द भर दे देता हूँ।
शुक्रवार, 22 मई 2009
गोमती किनारे - ब्लॉग पर मेरी दूसरी कविता
शुक्रवार, 15 मई 2009
कोई ढूढ़ दे मेरे लिए
बात पुरानी है. देवरिया के जी.आइ.सी में मैं नवीं में था. वार्षिक समारोह या जिला स्तरीय खेल कूद प्रतियोगिता थी जिसके दौरान काव्य अंत्याक्षरी जैसी प्रतियोगिता भी हुई थी. उसी में मैंने सुनी थी ये पंक्तियाँ:
"एक बार फिर जाल फेंक रे मछेरे
जाने किस मछ्ली में बन्धन की चाह हो."
आज तक वह पूरा गीत और उसके गीतकार का नाम ढूढ़ रहा हूँ. नहीं मिले.
सम्भवत: आप मेरी सहायता कर सकें ?
"एक बार फिर जाल फेंक रे मछेरे
जाने किस मछ्ली में बन्धन की चाह हो."
आज तक वह पूरा गीत और उसके गीतकार का नाम ढूढ़ रहा हूँ. नहीं मिले.
सम्भवत: आप मेरी सहायता कर सकें ?
मंगलवार, 12 मई 2009
प्रार्थना - ब्लॉग पर मेरी पहली कविता
धूप!
आओ,अंधकार मन गहन कूप
फैला शीतल तम ।मृत्यु प्रहर
भेद आओ। किरणों के पाखी प्रखर
कलरव प्रकाश गह्वर गह्वर
कर जाओ विश्वास सबल ।
तिमिर प्रबल माया कुहर
हो छिन्न भिन्न। सत्त्वर अनूप
आओ। अंधकार मन गहन कूप
भेद कर आओ धूप।
आओ,अंधकार मन गहन कूप
फैला शीतल तम ।मृत्यु प्रहर
भेद आओ। किरणों के पाखी प्रखर
कलरव प्रकाश गह्वर गह्वर
कर जाओ विश्वास सबल ।
तिमिर प्रबल माया कुहर
हो छिन्न भिन्न। सत्त्वर अनूप
आओ। अंधकार मन गहन कूप
भेद कर आओ धूप।
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