तोड़ कर सारे प्रतिमान
मैंने डाल दिये हैं समय के कूड़ेदान में
जिन्हें कोई भाव न दे
उन्हें दान दे अपना अहं पोषित होता है।
छ्ल है यह लेकिन छ्लना जीवन रीति है
विकास है, बाढ़ है, परिवर्तन है
जीवन धन है छलना
मरने के बाद कौन छला जाता है?
कौन छल पाता है?
प्रतिमान तो बस जीवन के लिये हैं।
मरना निरपेक्ष है
धुकधुकी बन्द हुई
साँसों का कोटा चुका
और
हो गये सपाट लमलेट
प्रतिमान निरपेक्ष!
अहं मुक्त सम्भवा
वा या किं वा।
मैंने डाल दिये हैं समय के कूड़ेदान में
जिन्हें कोई भाव न दे
उन्हें दान दे अपना अहं पोषित होता है।
छ्ल है यह लेकिन छ्लना जीवन रीति है
विकास है, बाढ़ है, परिवर्तन है
जीवन धन है छलना
मरने के बाद कौन छला जाता है?
कौन छल पाता है?
प्रतिमान तो बस जीवन के लिये हैं।
मरना निरपेक्ष है
धुकधुकी बन्द हुई
साँसों का कोटा चुका
और
हो गये सपाट लमलेट
प्रतिमान निरपेक्ष!
अहं मुक्त सम्भवा
वा या किं वा।
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जवाब देंहटाएं.
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मरना निरपेक्ष है
धुकधुकी बन्द हुई
साँसों का कोटा चुका
और
हो गये सपाट लमलेट
प्रतिमान निरपेक्ष!
अहं मुक्त सम्भवा
वा या किं वा।
बहुत अच्छी लगी यह कविता, कविश्रेष्ठ...
...
अपना जीवन क्यों औरों की नकल करेंगे,
जवाब देंहटाएंजितना मन को वहन कर सके सकल धरेंगे।
अपने अहं को पोषित करने के लिए जीवन का यह छल खुद को ही छलने जैसा है.
जवाब देंहटाएंशब्दों का इंद्रजाल जैसी है यह कविता.
छल ना!
जवाब देंहटाएंहमारे आदिग्रन्थ तो यही सिखाते हैं।
आप यह प्रतिमान तोड़ कर
बात क्यों बढ़ाते है?
अहं को जो समझ गया
वह तो ब्रह्म बन गया
जो इस छल-प्रपंच से मुक्त है
फिर किस अहं को पोषित कर रहे हैं आप?
:)