सोमवार, 3 जून 2013

तोड़ कर सारे प्रतिमान
मैंने डाल दिये हैं समय के कूड़ेदान में
जिन्हें कोई भाव न दे
उन्हें दान दे अपना अहं पोषित होता है।

छ्ल है यह लेकिन छ्लना जीवन रीति है
विकास है, बाढ़ है, परिवर्तन है
जीवन धन है छलना
मरने के बाद कौन छला जाता है?
कौन छल पाता है?
प्रतिमान तो बस जीवन के लिये हैं।

मरना निरपेक्ष है
धुकधुकी बन्द हुई
साँसों का कोटा चुका
और
हो गये सपाट लमलेट
प्रतिमान निरपेक्ष!
अहं मुक्त सम्भवा
वा या किं वा।