तुम्हारी स्मृतियाँ -
घर से भागे रूठे बच्चों की तरह।
जब आती हैं वापस
घर सँवरता है
बनते हैं तरह तरह के पकवान।
डाइनिंग टेबल पर जो धूल थी ही नहीं;
पोंछ दी जाती है।
नमकदानी की सीलन
ग़ायब होती है।
स्वाद छिड़कने को
मिर्चदानी उठाई जाती है।
भोजन के बाद
थाली की जूठन में
चित्रकारी करती हैं अंगुलियाँ
लिखती हैं एक नाम
और
स्मृतियाँ
चली जाती हैं डिनर के बाद-
उन्हीं रूठे बच्चों की तरह।
वही पुरानी शिकायत-
नाम ग़लत क्यों लिखा?
हे शिकायत!
जवाब देंहटाएंतू चली क्यूँ नहीं जाती
गधे के सींग की तरह
बहुत ही सुन्दर बेहतरीन कविता,आभार.
जवाब देंहटाएंबहुत कोमल, स्मृतियों की तरह।
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