नत ललाट पर बिखरी अलकें
प्राची में सिन्दूर लगे
प्राची में सिन्दूर लगे
नयन सरोवर पुरइन भँवरे
कपोल पराग छू छिड़क भगे
कपोल पराग छू छिड़क भगे
हाथों के अर्घ्य अमर
जूठे बासन धो गंगाजल
जूठे बासन धो गंगाजल
अन्न अग्नि आहुति सहेज
चूड़ियों ने कुछ सूक्त पढ़े।
चूड़ियों ने कुछ सूक्त पढ़े।
नेह समर्पण भावों का ज्यों
मिथकों के अम्बार गढ़े
मिथकों के अम्बार गढ़े
रुँधे गले कुछ कह न पाये
मौन शब्द आभार पढ़े
मौन शब्द आभार पढ़े
ओस सजी दूब फिसलती
आँखों में आराधन है
क्षितिज मिलन के नव्य मधुरआँखों में आराधन है
साँसों में ओंकार जगे।
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एक रंग यह भी:
भोजन छ्न्द
लोगो ने प्रेमिकाओं पर तो अनगिनत लिखे, घरनियाँ रह जाती है ..
जवाब देंहटाएंअनुपम !
@ वाणी जी ,
हटाएंकवि ने, चूड़ियां पहनाई हैं, साँसों में ओंकार जगाया और नत ललाट में सिन्दूर लगाया तो है :)
वहीं क्षितिज पर, लाल प्रभा में, निशा दिवस का संगम हो,
जवाब देंहटाएंधरा गगन का मेल प्रतीक्षित, साक्षी पाथर, अब नम हो।
अहो - कितनी सुन्दर पंक्तियाँ हैं । घरनी को इतनी सुन्दर कविता - आँखें भर आई हैं कविवर :)
जवाब देंहटाएंसुन कर गुन कर चुप चाप रहा
जवाब देंहटाएंकुछ भी न कहा - न अहो, न अहा!
- निराला :)
मौन मन मथता रहा
जवाब देंहटाएंक्या-क्या नहीं सहा!